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सृजन समूह शामली, उत्तर प्रदेश

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रविवार, 25 दिसंबर 2022

बालमन पर परिवेशीय प्रभाव

 


          ये धुआं धुआं सा अब क्यों छा गया?

          क्यों बचपन भी छिना हुआ सा हो गया?

         ये हमारी परवरिश को न जाने क्या हो गया?

         बच्चों का जीने का अंदाज ही बदल गया।।

अपने परिवेश का बालमन पर बहुत प्रभाव पड़ता है।वह जिस वातावरण में रहता है,जिस प्रकार के संस्कारों से सिंचित किया जाता है बढ़ती हुई उम्र में उसके व्यक्तित्व निर्माण में यह सब महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जिस तरह के संस्कारों को लेकर उसका पालन किया जाता है वह वैसा ही बन जाता है। बचपन में श्रवण कुमार की कहानी देखकर महात्मा गांधी जी के बाल मन पर जो प्रभाव पड़ा सम्पूर्ण जीवन वह अमिट लेख के समान रहा। माता जीजाबाई ने वीरों की कहानियां और परवरिश कर महान शिवाजी को तराशा।

            भारत विश्वगुरू की उपाधि से विभूषित, सम्पूर्ण विश्व को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाला, अपने बच्चों को ही अपनी धनदौलत समझकर परवरिश करने वाला आज उपभोक्तावाद की अंधी दौड़ में शामिल हो गया है और बच्चों को सम्पूर्ण सुविधाएं उपलब्ध कराकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ रहा है। वह भूल गया है कि सुविधाएं बच्चों को एक आरामदायक जीवन तो प्रदान कर सकती हैं परन्तु वीर शिवाजी एवं भगतसिंह नहीं बना सकती। हम इस बात से मुंह नहीं मोड़ सकते कि हमारी परवरिश हमारे बच्चों को स्वार्थ की एबीसीडी सिखा रही है। बच्चों को ऊंची उड़ान भरना सिखाइए परंतु दूसरे को नीचा दिखाकर नहीं, बल्कि समानता का भाव लेकर। बाल मन को आकाश की सैर कराइए।कवि त्रिलोक सिंह जी कहते हैं

         नभ के तारें देखकर, एक दिन बबलू बोला

       अंतरिक्ष की सैर करें मां,ले आया उड़नखटोला

       कितने प्यारे लगते हैं, ये आसमान के तारें

       कौतूहल पैदा करते हैं,मन में रोज हमारे

         आज परिस्थितियां परिवर्तित हो चुकी है। दूरसंचार की क्रान्तिकारी परिवर्तन ने सम्पूर्ण वैश्विक परिदृश्य कोबदलकर रख दिया है। ध्यातव्य है कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स एक मुक्त, सर्वसुलभ होने से बच्चें इसकी सम्पर्क में ज्यादा आ गये है। सकारात्मक जानकारी के साथ ही नकारात्मक ऊर्जा प्रदान करने वाली एवं अमर्यादित सामग्री को देखने, पढ़ने से हिंसक प्रतिक्रिया सामने आ रही है। सोशल नेटवर्किंग पर बच्चें ज्यादा समय व्यतीत कर रहे हैं।फेक न्यूज, वैमनस्यता को बढ़ावा, अनर्गल वीडियोज से बच्चें गलत राह पर अग्रसर हो रहे हैं। उनमें कुंठा, तनाव,अवसादग्रस्तता इत्यादि समस्याएं घर कर रही है। बच्चें ही नहीं बड़े भी दिन भर की गतिविधियां पोस्ट कर रहे हैं। निजता भंग हो रही है। अकांउट हैकिंग की घटनाएं आम हो गई है। बच्चें साइबर क्राइम का हिस्सा बन रहे हैं।

             आज फिर से हमें प्राचीन भारत की ओर लौटने की आवश्यकता है जहां पर परंपरागत शिक्षा प्राप्त करने के साथ ही बच्चें नैतिक मूल्यों की शिक्षा भी प्राप्त करते थे।हमारे पास बाल साहित्य का विपुल भंडार है। आवश्यकता है तो संतुलन बना कर चलने की। नेटवर्किंग माना आज हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन गया है परन्तु इसका प्रयोग ज्ञान प्राप्ति हेतु हों तो राष्ट्र निर्माण में महती भूमिका निभा सकता है। नकारात्मक सामग्रियों पर अमर्यादित सोशल साइट्स पर सरकार को पूर्ण नियंत्रण रखना चाहिए।

माता पिता एवं शिक्षकों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है कि वे बच्चों को साहित्य पढ़ने की ओर प्रेरित करें जिससे उनमें सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न हो। पहले संयुक्त परिवार में बच्चों का पालन पोषण होता था तो बड़ों के अनुभव स्वत: ही छोटों में हस्तांतरित हो जाया करते थे। समय बदला और एकाकी परिवारों का प्रचलन बढ़ा। माता पिता नौकरी में व्यस्त और बच्चा टेलीविजन और मोबाइल में समय गुजारता है। हमारी संस्कृति कहीं खो सी गई है। उसे फिर से जाग्रत करने की आवश्यकता है जिससे बच्चे का सर्वांगीण विकास हो और उसे समय गुजारने के लिए केवल तकनीक का ही सहारा ना लेना पड़े। बच्चों को साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। पंचतत्व की कहानियां,जातक कथाएं, ज्ञान विज्ञान का अलौकिक खजाना है। इनमें उनके लिए एक से बढ़कर एक सीख दी हुई है।

             बच्चों की प्रवृत्तियां, आकांक्षाएं,जिज्ञासा, कौतूहल इत्यादि सभी उनके मन से सम्बंधित है। डॉ हरिशंकर देवसरे कहते हैं " आज बाल साहित्य में जिस सैद्धांतिक आधार भूमि की बात कही जा रही है वह उसी बाल मनोविज्ञान पर आधारित है जो बालक के विकास तथा बदलते परिवेश में सामंजस्य स्थापित करने में उसके लिए सहायक होता है"

         अलका शर्मा

शामली, उत्तर प्रदेश

 

 

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