नैतिक मूल्य किसी भी संस्कृति के अथवा समाज के आधारभूत आदर्श होते हैं । मूल्य समाज में नैतिक व्यवस्था को बनाए रखने, व्यक्तित्व का विकास करने तथा सबको स्वतंत्रता के अनुसार जीवन. यापन करने में सहायक होते हैं । साहित्य में जीवन मूल्य कल्पना में जन्म नहीं लेते हैं, अपितु साहित्यकार के अनुभूत सत्य होते हैं । साहित्य जिन मानव मूल्यों को ग्रहण करकेउसके स्वरूप को अभिव्यक्त करता है उन्हें साहित्यिक मूल्य कहते हैं ।
मानव मूल्य और साहित्यिक मूल्य वस्तुतः एक ही है । साहित्य शब्द का अर्थ काव्य शास्त्र में "सहितस्य भावः इति साहित्यम्"है अर्थात साहित्य में हित की भावना का होना अनिवार्य है। साहित्य भारतीय हो या पश्चिमी, उस समाज के नैतिक मूल्यों की उपस्थिति साहित्य में देखी जा सकती है। यथा-
परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई।
प्राचीन समय में भारतीय समाज में भौतिक विकास से अधिक महत्व आध्यात्मिक विकास पर दिया गया है। जिसके कारण भारत में धर्म एवं दर्शन की समृद्ध परंपरासुशोभित है। जीवन के हर क्षेत्र से सम्बंधित नैतिक मूल्यों की अवधारणा से निहित उदाहरणों से सम्पूर्ण भारतीय साहित्य ओतप्रोत है। यथा
अभिवादन शीलस्य नित्य वृद्धोपसेविनः
चत्वारि तस्य वर्धन्ते, आयुर्विद्यायशोबलम्।
भक्ति काल मे नैतिक मूल्यों की अत्यधिक समृद्ध साहित्य की रचना हुई है । यथा "साई इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय।।
श्रीमद्भागवत गीता नैतिक मूल्यों का महासागर है । गीता में निष्काम कर्म की अवधारणा को प्रस्तुतकिया गया है । वर्तमान में ये विचार अत्यंत प्रासंगिकप्रतीत होते है क्योंकि वर्तमान में मानव फल की इच्छा के लिए कार्य करता है।जिससे कार्य समाप्ति के पश्चात फल या लाभ न मिलने पर निराश व कुंठित हो जाता है । भारतीय साहित्य में दया, करुणा, आस्था,श्रद्धा जैसे मूल्य नजर आता है । हमारे यहाँ
गुरु के महत्व को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है । "गुरु गोविंद दोऊ खडे काको लागे पाय।
बलिहारी गुरु आपणे गोविंद दियो बताय ।।
आधुनिक युग में परिवारों में बिखराव, सम्बन्धों में टूटन , निरर्थक बोध निराशावादी सोच जैसी समस्याएं उत्पन्न हुई है तो वहीं भूमंडलीकरण एवं उदारीकरण का प्रभाव भारतीय समाज पर पडा जिससे समाज में व्यक्तिवाद,प्रतिस्पर्द्धा एकल परिवार जैसे मूल्य विकसित हुए।इन मूल्यों की सशक्त अभिव्यक्ति भारतीय साहित्य में नजर आती है । एक साहित्यकार जन संवेदनाओं सेगहरे रूप में जुडा रहता है ।
वस्तुतः नैतिक मूल्यों के अभाव में साहित्य का कोई महत्व नहीं है । साहित्य किसी भी समाज को प्रगतिशील एवं नवीन नजरिया तभी दे सकता है, जब साहित्य में नैतिक मूल्यों का समावेश होगा । अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि फिर से आदर्श मूल्यों को स्थापित करते हुए साहित्य सृजन किया जाए जिससे भारत फिर से संस्कारों के उच्चतम पटल पर विराजमान हो जाए ।
-अलका शर्मा