आँख मीचते हो और कहते हो दिखता नहीं
परिवर्तन का नर्तन क्या तुम्हें दिखता नहीं
आँख खोलकर देखना अब तो आरंभ कर
रट क्यूँ लगाये हो दिखता नहीं दिखता नहीं ।
तू कवि है तू दृष्टा है जगत का
जो दिखता उसे क्यूँ लिखता नहीं
रचनाकार कभी स्वार्थी हो नहीं सकता
फिर परमार्थ पर क्यूँ लिखता नहीं ।
माना कि स्वार्थ सबल होता है संसार में
पर प्यार की ताकत भी कम नहीं संसार में
जिस राह पर चल रहे हो आजकल तुम
वो पतन के गर्त में ले जाती है संसार में ।
इसलिए खुद को बचा संसार को भी
सहिष्णुता के संग अपने प्यार को भी
बहा बंधुत्व की नदियाँ अपनी लेखनी से
कूल को भी कर पवित्र धार को भी ।
लिख पुष्प की खुशबू शाख की नाजुकता
तितलियों का मँडराना भँवरे की आकुलता
लिख मयूर का नर्तन कपोत का प्यार लिख
इठलाती बल खाती नदी की धार लिख ।
लिख अचल पहाड़ पर झील की गहराई सी
सदा लिख ऐसा कि लगे स्वयं की परछाई सी
लिख लहर समुद्र की तैरती नावों को लिख
डूबता सूरज को लिख रात के ख्वाबों को लिख ।
लिख मगर ऐसा ना जिससे भाईचारा हो खतम
कविता के सदभाव पर कभी ना करना ये सितम
द्वेष कटुता ईर्ष्या के भाव कभी आये ना मन में
दिखाई ना दे दोष कवि दूर दूर तक तेरे फन में ।
प्यार मधुरता स्नेह के जब होंगे रंग
फिर करेगा न्याय तू कविता के संग
तब उड़ेगी कीर्ति की ध्वजा समझ ले
जायेगी फिर ऊंची गगन तेरी पतंग ।
- व्यग्र पाण्डे
कर्मचारी कालोनी, गंगापुर सिटी,
सवाई माधोपुर (राजस्थान)322201