मित्रों। सबसे पहले मैं आपको अपना परिचय देती हूँ। मेरा नाम पुस्तक है। संज्ञा में, मेरी जातिवाचक संज्ञा है। साक्षर लोग मुझे आदर के साथ रखते हैं। विद्यार्थी मुझे अपने दिमाग में बैठाकर रखते हैं। मेरे हजारों तरह के भाई और बहनें हैं। मेरे भाई 'ग्रंथ' कहे जाते हैं।
पहले इनका नाम 'पोथा' भी था। मेरा शरीर कागज से बना होता है। जब कागज नहीं था, किन्तु लिपि थी, तब पुस्तक नहीं, शिलालेख और ताम्र पत्रों के रूप में मेरे पूर्वजों ने समाज के ज्ञान को बचाए रखा। कोई भोज पत्र पर कोई ताड़पत्र पर तथा कोई कपड़े पर तो कोई चमड़े पर अपनी बूढ़ी काया को सुरक्षित रखते आ रहे हैं। स्याही भी मेरी बहन समान है। जो लिपि के रूप में प्रकट होकर मेरे मन की बातें लोगों को बताती है। मेरी देखभाल करने वाले लोग मुझे अल्मारी तथा बक्सों में बन्द रखते हैं ताकि मेरे शत्रु मूषकराज मुझे न खा सकें। चूहे मुझे खा-खाकर ऐसी आकृति का बना देते हैं कि मैं कहीं की नहीं रहती। मैं चाहती हूँ कि लोग मुझे सँभाल कर रखें। वे मुझे पढ़ें और मेरे अन्दर भरा ज्ञान प्राप्त करके उससे समाज का उपकार रखे करें। मुझे सबसे ज्यादा खुशी तब होती है जब मेरी पुस्तकालय में आवभगत की जाती है। मेरे ऊपर पक्की जिल्द चढ़वाई जाती है। किसी चीज को इतना प्यार किया जाए यह एक गर्व की बात होती है। गँवार, पागल तथा जाहिल लोग मुझे गलने के लिए खुले में छोड़ देते हैं। मेरे पन्नों को फाड़- उनमें मिर्च-मसाले बाँधकर बेचते हैं। मैं खुद अचम्मे में हूँ कि इन सब विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी पुस्तक व्यवसाय में वृद्धि हुई है, जो मेरी लोकप्रियता की परिचायक है। मेरे श्रद्धेय पाठक की आदत है कि वे अपनी पुस्तकें आमतौर से दूसरों को पढ़ने के लिए नहीं देते। वे स्वयं, जब उनका मन करता है, कभी धूप तथा कभी छांव में मुझे पढ़ते हैं तथा मैं भी उनका सहचर्य पाकर अपने को और गौरवशालिनी मानती हैं। मैं यही चाहती हूँ कि ज्यादा उलट-पलटकर मुझे परेशान न किया जाए। मेरा समाज में सम्मान एवं आदर हो क्योंकि मैं बच्चों से बूढ़ों तक ज्ञानामृत प्रदान करती हूँ।
रुचि शर्मा
सहायक अध्यापक
कम्पोजिट विद्यालय डुंडूखेड़ा काँधला
शामली (उत्तर प्रदेश)