सूर्य देव पूरी जोर आज़माइश कर रहे थे | लग रहा था जैसे हमें पिघलाकर ही मानेगें | पिछले कुछ दिनों से यही हाल था | बस एक दिन विचार बन ही गया कि चलों एक-दो दिन किसी ठण्डी जगह पर जाकर सुकून की साँस ली जाये | इस बार हिमाचल जाने का मूड बन रहा था | हिमाचल की ज्यादा यात्रा अभी तक हो भी नही पायी थी | लेकिन वहाँ जाने के लिए थोडा अधिक समय चाहिए | दो-तीन में हिमाचल की यात्रा मतलब बस भगदड़ सी-ही मचानी है .... और क्या ?.... | लेकिन इससे ज्यादा समय निकालना भी तो मुश्किल हो रहा था | लोगों को लगता है कि शिक्षकों की तो मौज ही मौज है | खूब छुट्टियाँ मिलती है | लेकिन सच तो यह है कि उत्तर प्रदेश में सबसे कम छुट्टियाँ शिक्षकों को ही नसीब होती हैं |
एक तो छुट्टियों की कमी और फिर एक कारण और भी था जो हिमाचल जाने से रोक रहा था और वो था गर्मियों में वहाँ पर बहुत अधिक भीड़ हो जाना | शान्ति की तलाश थी तो भीड़ से बचना ही उचित समझा | कहीं न कहीं दिमाग में अभी कोविड का भय भी शेष था जिसके कारण ऐसी जगह ही जाना ठीक लग रहा था जहाँ अपेक्षाकृत भीड़ कम ही हो | अन्तत: उत्तराखण्ड ही जाना ठीक लगा | नज़दीक भी है | काफी सोच-विचार कर तय किया कि इस बार लेंसडाउन चला जाये | तय हुआ कि घर से चलकर पहले कोटद्वार पहुँचा जाये और पहले दिन वहीँ आसपास घूमकर विश्राम किया जाये | गूगल बाबा ने बताया कि कोटद्वार में सिद्धबली का प्रसिद्द मन्दिर है तो मन में आया कि मन्दिर के पास ही कोई रैनबसेरा देख लिया जाये | एक होम-स्टे को फोन मिलाया | बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ क्योंकि उस होम-स्टे के मालिक हमारे क्षेत्र के ही मूल निवासी थे |
अगले दिन दस जून को गाड़ी में फटाफट सारा सामान रखा और निकल पड़े | एक घंटे से पहले ही मुज़फ्फरनगर शहर पार कर डाला क्योंकि इतनी सुबह ज्यादा ट्रैफिक भी नहीं था | आगे की सड़क पर काम चल रहा था | बिजनौर में जाम में भी फँसना पड़ा | नजीबाबाद में भी काफ़ी भीड़ मिली | रास्ते में एक जगह रूककर गन्ने के रस का आनन्द लिया | दोपहर के लगभग बारह बजे हम कोटद्वार की सीमा में प्रवेश कर गये थे | कोटद्वार उत्तर प्रदेश की सीमा पर बसा है | इसे गढ़वाल का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है |
जब हम कोटद्वार के द्वार पर पहुँचे तो हमारी कार रोक ली गयी | गाडी के आगे पीछे रिफ्लेक्टर लगाये गये और शुल्क वसूला गया | नगर में भीड़-भाड़ होने की वजह से हमे लगभग आधा घंटा सिद्धबली के मन्दिर तक पहुँचने में लगा | मन्दिर के पास ही हमें वो होम-स्टे भी आसानी से मिल गया जिससे हमने पहले ही बात कर रखी थी | होम-स्टे के मालिक ने बड़ी सहृदयता से हमारा स्वागत किया | बहुत सुन्दर और साफ़-सुथरा होम-स्टे था | हमने अपना कमरा देखना चाहा | कमरे में पहुँचकर हमें आभास हुआ कि वहाँ भी बहुत गर्मी थी | कमरा वातानुकूलित नहीं था | आकार में कुछ छोटा भी लग रहा था | होम-स्टे के मालिक हमारे मनोभाव समझ गये | उन्होंने तुरन्त अपने सहायक को बुलाया और बराबर वाले होटल में हमारे ठहरने की व्यवस्था की | हम ज़ल्दी से स्नान करके सिद्धबली मन्दिर में हनुमान जी के दर्शन के लिए पहुँचे | मन्दिर में बड़ी शान्ति की अनुभूति हुई | यह मन्दिर खोह नदी के किनारे स्थिति है | इसके सामने कुछ और भी मन्दिर हैं | नदी के पुल से होकर हम शहर की ओर चले | उस पार एक छोटा गन्दा पार्क था जिसमें बैठना मुश्किल था | वहाँ किसी ने बताया कि यहाँ पर एक चर्च भी है | चर्च तक का रास्ता बड़ा तंग था | सामने से कोई दूसरी कार आ जाये तो बचना मुश्किल था | चर्च वास्तव में सुन्दर है | चर्च में ही शाम हो गयी थी | वहाँ से हम वापस होटल आ गये |
शाम को मैंने होटल के कर्मचारियों से जानना चाहा कि क्या मेरे जैसा मैदानी भाग का ड्राईवर भी गाड़ी लेंसडाउन
अगली सुबह ठीक आठ बजे हम कोटद्वार से निकल पड़े | सड़क कुछ देर तक उस नदी के किनारे-किनारे चली फिर पता नहीं नदी कहाँ खो गयी | रास्ते में दुगड्डा नाम का एक क़स्बा भी मिला ड्राईवर ने बताया कि हमें आगे के रास्ते लिए स्नेक्स और पानी आदि यहीं से लेना होगा आगे दिक्कत होगी और महँगा भी मिलेगा |
वहाँ से हम पहले सीधे भुल्ला ताल पहुँचे | सुन्दर जगह है | लेकिन गर्मी से राहत जैसी कोई बात नहीं थी | ताल में नौका विहार के लिए हमने टिकट लिए और नौका विहार का आनन्द लिया | ताल में बहुत सुन्दर बतखें विचरण कर रही थीं | ताल के चारों ओर का नज़ारा भी बड़ा आकृषक था | एक तरह से कह सकते हैं कि बड़ा रमणीक दृश्य था | भोजन वहीँ पर कैन्टीन में किया गया |
फिर टिप-इन-टॉप की तरफ रवाना हुए | गर्मी तो बहुत थी लेकिन वहाँ का प्राकृतिक दृश्य नज़ारा बड़ा ही खूबसूरत था | मन करता था कि सब कुछ कैमरे में कैद कर लिया जाये | दूर-दूर तक फैली पहाड़ियों को देखकर लगता था कि जैसे किसी शरारती बच्चे ने जगह-जगह मिट्टी के ढेर बना दिए | इन पहाड़ियों में बसे घरों को देखकर तो अलग ही रोमांच हुआ | हमें बताया गया कि यहाँ से तिब्बत भी दिखायी पड़ता है |यहाँ से थोडा नीचे आकार हमने सेंट मेरी चर्च भी देखा | देखने से ही लग रहा था कि यह बहुत ही पुराना है | चर्च अभी बन्द था | अन्दर से नहीं देख पाये | थोडा सा और नीचे आकर हमने एक बहुत सुन्दर पार्क देखा इसमें एक युद्धक विमान प्रदर्शन हेतु रखा गया है | हम लोग सेना का संग्रहालय देखना चाहते थे लेकिन उस समय वो बन्द था | हमें कहा गया कि हमें एक घंटे बाद आना पड़ेगा | तभी याद आया कि टिप-इन-टॉप के पास एक मन्दिर का बोर्ड लगा हुआ था | तय हुआ कि जब तक संग्रहालय खुले तब तक मन्दिर हो कर आया जाये | हम फिर ऊपर की ओर चल पड़े |
यह बोर्ड सन्तोषी माता के मन्दिर का था | अधिक दूर तो नहीं था लेकिन चढ़ाई बहुत खड़ी थी और सड़क बहुत संकरी | अब अहसास हुआ कि यहाँ पर पहाड़ी ड्राईवर लेकर आना सही फैसला साबित हुआ | इस सड़क पर गाड़ी लेकर चढ़ना और सुरक्षित नीचे उतरना मेरे जैसे मैदानी ड्राईवर के बस की बात नही थी |
मन्दिर सुनसान जगह पर स्थिति था | मन्दिर के अन्दर जाकर बहुत आत्मिक शान्ति का अनुभव हुआ | मन्दिर के अन्दर भी कोई नहीं था | वहाँ पर ढोलक, हारमोनियम और कई अन्य वाद्ययन्त्र रखे हुए थे | एक बात तो हमने ज़रूर अनुभव की ... इस पहाड़ी पर हवा में ठण्डक थी | मैंने तो कुछ देर वही लेटकर कुछ देर उस ताज़ी और ठण्डी हवा का आनन्द लिया | जब नीचे आये तो चर्च खुल चुका था | चर्च को अन्दर से देखकर हम फिर वापस सेना के संग्रहालय आ गये | यहाँ हमने गढ़वाल राइफल्स वॉर मेमोरियल देखा और रेजिमेंट म्यूजियम देखा | लेकिन यहाँ कैमरा प्रतिबन्धित है तो यहाँ की स्मृतियाँ हम ज्यादा नहीं समेट सके | यहाँ हमें पानी की बहुत समस्या हुई थी | बिक्री के लिए भी पानी उपलब्ध नहीं था |
वापसी में हमें ड्राईवर ने पानी के एक प्राकृतिक स्रोत के पास रोका जो पता नहीं कहाँ से आ रहा था | ऊपर से रिसते हुए पानी को रोककर ऐसी व्यवस्था की गयी थी कि पानी को टोंटियों की सहायता से आराम से बोतल में भरा जा सकता था और हाथ से भी पीया जा सकता था |
रास्ते में नीचे उतरते हुए एक छोटा सा दुर्गा मन्दिर मिला | वहाँ माता के दर्शन किये | मन्दिर के पीछे से नदी बह रही थी | पत्थरों से टकराता पानी बड़ा सुन्दर दृश्य सृजित कर रहा था | पानी के संगीत को कुछ देर सुनने के बाद हम पुन: गन्तव्य की ओर निकल पड़े | होटल में आते ही हम निढ़ाल होकर काफी देर तक सुस्ताते रहे | उस दिन तो शरीर में बस इतनी ही हिम्मत बची थी कि कमरे से बाहर आकर खाना खाने के लिए जा सकें | वापस आकर निद्रा देवी के आगोश में समा गये |
अगले दिन सोकर उठे तो बहुत तरोताज़ा अनुभव किया | मन तो था कि आज कहीं ओर किसी पहाड़ी पर चला जाये लेकिन रात में खाना खाते हुए ही फ़ोन पर आदेश मिला था कि दो दिन बाद एक ऑनलाइन गोष्ठी का आयोजन करना है तो लगा कि आज घर वापस जाना ही ठीक रहेगा | फिर याद आया कि कोटद्वार से लगभग 14 किमी दूर कण्वाश्रम भी तो है क्यों न जाते-जाते वहाँ भी घूमकर निकला जाये | हमने होटल से अपना सारा सामान समेटा, गाड़ी में रखा और गाड़ी को कण्वाश्रम की तरफ दौड़ा दिया |
ये देखकर बहुत दुःख हुआ कि विकास के नाम पर चल रहा निष्ठुर निर्माण इस आश्रम के बहुत समीप तक पहुँच गया है | मालिनी नदी के इस ओर हम थे और दूसरी ओर महर्षि कण्व का आश्रम | कुछ देर पुल पर ही गाड़ी रोककर हमने आस-पास के मनोहारी दृश्य से नेत्रों को तृप्त किया | यह स्थान आज भी इतना सुन्दर है तो उस समय कितना मनोरम रहा होगा जब महाराज दुष्यन्त यहाँ आये होंगें | तब न यहाँ तारकोल की सड़कें होंगीं और न सड़कों के दोनों ओर फैला पन्नी और प्लास्टिक का कचरा | मालिनी का जल भी तब मलिन न रहा होगा | महाराज को इसी नदी का जल तो पीने के लिए प्रस्तुत किया गया
नदी पार कर थोड़ी सी चढ़ाई चढ़कर हम आश्रम के मुख्य द्वार तक पहुँचे | अब हम उस आश्रम के प्रांगण में थे जहाँ कभी महर्षि कण्व का विद्यालय, महाविद्यालय या कहिये कि विश्वविद्यालय चलता होगा | आज भी इस आश्रम में एक छोटा सा महाविद्यालय चल रहा है | देखने से तो लगता कि महाविद्यालय का भवन दानदाताओं के पैसे से ही बना है और सरकार द्वारा इसे केवल विश्वविद्यालय से सम्बद्ध मात्र किया है | हो सकता है मेरा अनुमान गलत हो | आश्रम के दूसरे भाग में एक प्राकृतिक
इस स्थान ने हमारे देश को नाम दिया और देश ने इस स्थान को क्या दिया ? कुछ भी तो नही | किसी समय जब आज जैसी पक्की सड़कें नहीं हुआ करती तक यह आश्रम केदारनाथ और बद्रीनाथ धाम मार्ग में पड़ता था और तीर्थ यात्रियों का विश्राम स्थल भी हुआ करता था | मुझे कोई शासक बना दे तो इस क्षेत्र की पाँच किलोमीटर की परिधि में सभी आवासीय और व्यावसायिक निर्माण बन्द करवा दूँ | कोई चाय-पानी की दुकान भी हो तो कच्ची झोंपड़ी में ही चले और प्लास्टिक के गिलास के स्थान पर मिट्टी के कुल्हड़ ही अनिवार्य कर दिए जाएँ |
लगभग दो घन्टे हम आश्रम में रहे और फिर वापस अपने घर की तरफ निकल पड़े | यात्रा बड़ी सुखद, अविस्मरणीय और ज्ञानवर्द्धक रही |
-जय कुमार