जीवन पथ

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मेरे दोस्त!

क्या तुमने अपने में कभी

कुछ ऐसा देखा है, महसूसा है

जिससे घृणा होने लगे

स्वयं अपने आप से

अपने मन को

सूली पर टांग कर सोचो

 

मन, जो आजाद रहता है

मगर फिर भी अंधेरा है

दांव पर रखकर

अपने आंसुओं को

तुम स्वयं

अपने आप को भी   

पहचान नहीं पाते

मन का समंदर अशांत - सा

इसमें से निकल आता है

वह चेहरा

जो छुपाया था तुमने

मुखोटों के अंबार में

मुट्ठी भर स्वार्थों की खातिर

मोम-सी गलने लगी

क्यों यह जिंदगी ?

आशियाना किसी का

जलाना चाहा

हाथ तुम्हारा ही जला था

तुम्हारे लिए  

किसी के प्राण की कीमत

बहुत मामूली थी

 

क्रोध के ज्वालामुखी के संग

चलते चले जाने का

सारथी है दुःख

छोड़ दो अब

सूरज को मुट्ठी में करने का दम्भ

पैदा होने दो दिमाग में प्रश्न

सत्य को स्वीकार करो

सच, जिससे घृणा होने लगेगी

तुम्हें स्वयं से

देखना उसी दिन से तुममें

मानवता के अंकुर पनपने लगेंगे

और जीवन के पथ

उजले बन उभरने लगेंगे!

श्री राजकुमार जैन ’राजन

चित्रा प्रकाशन

आकोला, राजस्थान

 

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