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सृजन समूह शामली, उत्तर प्रदेश

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शनिवार, 8 अक्टूबर 2022

शिक्षा और संस्कृतिः अध्यापक की भूमिका

           


        शिक्षा एवं संस्कृति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं इन्हें भिन्न करना सम्भव नहीं है क्योंकि दोनों में जीव एवं आत्मा के सदृश संबंध हैं। एक शिक्षित समाज ही किसी संस्कृति की नींव होता है क्योंकि संस्कृति के लगभग प्रत्येक सूत्र जाकर शिक्षा से जुड़ते हैं विभिन्न दृश्य अथवा मंचीय कलाएँ हों, भाषा हो, पहनावा हो, भोजन हो, स्थापत्य हो, विज्ञान हो या धर्म! समय के साथ उनका स्वरूप बदलता है या यों कहें कि परिष्कृत होता चला जाता है। किसी भी समाज के विकसित होने के ये द्योतक हैं। भारतीय संस्कृति सर्वदा से ही परिवर्तनशील रही है और इस परिवर्तन ने उसे और अधिक संवेदनशील बनाया है। संस्कृति एक प्रक्रिया है। आधुनिक काल में भी हम इसमें परिवर्तन दे रहे हैं जिनमें कुछ अच्छा है और कुछ बुरा। हमारी संस्कृति ने दूसरी सभ्यताओं से बहुत कुछ सीखा और स्वीकृत किया। परंतु क्या आज के परिवेश में यह कहना उचित होगा? वे क्या कारण हैं जिनसे भारतीय संस्कृति के इतने गौरवशाली इतिहास के होते हुए भी हम इसे बच्चों / युवाओं तक नहीं पहुँचा पा रहे हैं और कभी-कभी भारतीय संस्कृति की ठोस दीवारें चरमराती दिखाई पड़ती हैं? यदि आज के संदर्भ में, शिक्षा में संस्कृति के समावेश की बात करें तो प्रत्येक अध्यापक की भारतीय इतिहास के लगभग पाँच हजार वर्षों की धरोहर की अनन्त यात्रा के विभिन्न पड़ावों को समझने की आवश्यकता है। यह मूर्त और अमूर्त विरासत के पहलू हमारी परंपरा का भाग हैं परंतु कुछ कारणवश कर उन्हें विद्यालय की चारदीवार से बाहर रखा गया। इसके परिणामस्वरूप विद्यालय से निकला हुआ आज की पीढ़ी का छात्र उन अथाह मूल्यों से वंचित है जो कभी हमारी गौरवशाली सांस्कृतिक परंपरा का भाग था। हमारे सभी सांस्कृतिक आयाम हमें एक-दूसरे के प्रति संवेदनशील और स्वयं को आत्मसम्मान से जीने का पाठ-प्रदर्शन करते हैं। भारतीय संस्कृति हमें संतुलित जीवन शैली का आदर्श मार्ग दिखाती है परंतु पिछले कुछ दशकों में शिक्षा ने युवा पीढ़ी को उन मूल्यों से वंचित रखा।

भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। यह संस्कृति न केवल प्राचीन है वरन एक जीवंत परंपरा के रूप में आज भी हमारे मध्य विद्यमान है। आज भी करोड़ों लोग स्वयं को भारतीय मूल्यों और चिंतन प्रणाली या यों कहें, जीवनशैली से जुड़ा हुआ पाते हैं। संस्कृति का विकास अथवा पतन वहाँ की राजनैतिक, प्राकृतिक और भौगोलिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है जिसका हमारी जीवनशैली पर प्रभाव पड़ता है। इस देश की सांस्कृतिक विविधता की कोई सीमा नहीं है और यही विविधता इस देश की सांस्कृतिक समरसता की विशेषता है। देश के हर क्षेत्र की विशेषताएँ वहाँ की मूर्त और अमूर्त विरासत में हमें आज भी देखने को मिलती हैं। इस सांस्कृतिक विविधता को शिक्षा, विद्यालय और छात्र से जोड़ने की कड़ी का कार्य प्रत्येक शिक्षक का है चाहे वह किसी भी विषय का हो। विद्यालय में बिताए लगभग बारह वर्ष- हर व्यक्ति के जीवन का वह भाग जो उसे केवल शिक्षित ही नहीं अपितु सुसंस्कृत भी बना सकता है।

ऐसे में यह शिक्षा-पद्धति का दायित्व है कि वह प्रत्येक बच्चे को संस्कृति से सींची गई शिक्षा से लाभान्वित करवाएँ और इसके लिए शिक्षक-प्रशिक्षण का समग्र होना आवश्यक है। इसी संदर्भ को ले कर 2005 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय की शिक्षा की केन्द्रीय सलाहकार समिति की शिक्षा में संस्कृति के समावेश को ले कर बनी उप-समिति ने शिक्षा में संस्कृति के समावेश को लेकर अनुशंसा की कि न केवल विद्यालयी अपितु उच्च शिक्षा में भी संस्कृति की शिक्षा का समावेश होना आवश्यक है। हमारे देश में प्रत्येक शिक्षक को केवल एक अथवा दो विषयों को पढ़ाने के लिए तैयार किया जाता है न कि मात्र एक शिक्षक के रूप में! अपने जीवन में विद्यार्थी के रूप में प्रवेश करने से लेकर एक शिक्षक बनने तक की यात्रा में संस्कृति के ऐतिहासिक पहलू का अनुभव किया हो, ऐसे शिक्षकों का अभाव है। यहाँ तक कि इतिहास, भूगोल या समाजशास्त्र के शिक्षकों ने पुस्तकों का ज्ञान तो प्राप्त किया परंतु कभी संग्रहालय में प्रवेश नहीं किया, किसी स्थापत्य को निकट से नहीं देखा, किसी कलाकार अथवा कलाकृति को नहीं सराहा यद्यपि यह सब कुछ उनके आस-पास विद्यमान होता है। इसके लिए उन्हें किसी और स्थान की यात्रा नहीं करनी पड़ेगी। क्या ऐसे ढले हुए शिक्षकों, प्रधानाध्यापकों अथवा शिक्षा प्रशासकों से यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे अपने विद्यालय के छात्रों को इस प्रकार की संस्कृति / कला निहित शिक्षा प्रदान कर सकते हैं?

हम अपने छात्रों/छात्राओं/युवाओं को मशीन बनाने की ओर अग्रसर हैं। उन्हें एक श्रेष्ठ नागरिक और अच्छा मानव बनाने की जगह न अच्छे वैज्ञानिक, गणितज्ञ अथवा इंजीनियर बना सके और न ऐसे चिकित्सक जो मानव-कल्याण के लिये कार्य करें न कि मात्र ए.टी.एम. मशीन बन कर रह जाएँ। एक शिक्षक की क्षमता अपार है- यदि वह चाहे तो बच्चों को कम से कम अपने आस-पास की संस्कृति से अवगत करा सकता है। इसके लिए प्रत्येक शिक्षक को स्वयं भारतीय संस्कृति के प्रत्येक पहलू का अनुभव और ज्ञान होना आवश्यक है। विद्यालय में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम ही केवल संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं करते अपितु ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो प्रत्येक विषय के पाठ्यक्रम से जुड़े हुए हैं जिन्हें अधिगम के समय शिक्षक चूक जाते हैं। विद्यालयों में सांस्कृतिक शिक्षा के अनेक अवसर होते हैं- प्रार्थना सभा, बाल दिवस, बाल मेला, वार्षिकोत्सव, गणतन्त्र दिवस, स्वतन्त्रता दिवस इत्यादि जिसमें अनेक कार्यक्रमों की प्रस्तुति होती है। परंतु ये कार्यक्रम केवल मनोरंजन के लिए और औपचारिकता पूरी करने के लिए होते हैं। इनका प्रायः शिक्षा-शास्त्र से कोई संबंध नहीं होता इसे सीखने की प्रक्रिया के रूप में नहीं देखा जाता, न ही इसका आकलन होता है। क्या हमारे शिक्षक इनमें निहित मूल्यों और इनकी विषय-वस्तु का शिक्षा में समावेश कर उसे पढ़ा सकते हैं? प्रत्येक कला किसी विषय पर आधारित होती है चाहे वह दृश्य कला हो, वास्तुकला हो, संगीत हो अथवा मंचीय कलाएँ, भाषा हो या लिपि, वे सभी स्वयं में कुछ न कुछ गहनता लिए होती हैं।

हम बच्चों को विषय पढ़ाते है, और कला भी सिखाते हैं और दोनों पृथक रूप से। यदि हम दोनों की विषयवस्तु में सामंजस्य स्थापित करते हुए उसमें निहित मूल्यों के साथ सिखाएँ तो शायद ज्यादा उचित होगा। उपरोक्त को स्पष्ट करने हेतु यदि उदाहरण के तौर पर कहें तो वह इस प्रकार होगाः वास्तु अथवा स्थापत्य के नमूने भारत जैसे देश में यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरे मिलेंगे, हमें इसके लिए ज़्यादा दूर जाने की आवश्यकता नहीं। लोगों के झुंड वहाँ पिकनिक मनाने जाते हैं और वहाँ शोर मचा कर, कचरा फैलाकर चले जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? यदि विचार करें तो हम पाएँगे कि कोई अपनी वस्तुओं को या फिर घर को गंदा नहीं करता। क्या कारण है कि सार्वजनिक स्थानों, विशेषकर ऐतिहासिक इमारतों को गंदा करने, उस पर लिखने या फिर तोड़-फोड़ करने मेंकोई हिचकिचाहट नहीं होती? स्थापत्य का हर नमूना विभिन्न वैज्ञानिक एवं कलात्मक विशिष्टताओं और तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अवस्थाओं का द्योतक होता है। बाल्यावस्था से ही बच्चों में यह शिक्षा और अभ्यास में आए कि हमारे आस-पास की धरोहर / संस्कृति हमारी अपनी है और हमें उसे आने वाली पीढ़ी के लिए बचाना है। यह संदेश हमारे शिक्षक अपनी प्रतिदिन की शिक्षा में शामिल कर लें तो किसी हद तक युवा पीढ़ी में यह चेतना आएगी और वे अपनी संस्कृति की ओर आकर्षित होंगे। कलाएँ केवल मनोरंजन के लिए न हो कर आनंद की अनुभूति प्रदान करने के साधन-स्वरूप होती हैं। उनमें हमारी पीढ़ियों से चली चली आ रही परंपराएँ, ज्ञान और प्रथाएँ संचित होती हैं जो वर्तमान पीढ़ी के लिए नींव का काम करती हैं।

विद्यालयों में सांस्कृतिक परम्पराओं को शिक्षा में लाने की आवश्यकता है। यह दायित्व केवल कला अथवा संगीत शिक्षक का न हो कर प्रत्येक शिक्षक का है जिसके लिए उन्हें तैयार रहना पड़ेगा तथा अभ्यास में लाना होगा। बच्चों, युवाओं को स्कूल, कॉलेज से हर वर्ष निकट स्थित संग्रहालय, स्मारक, रंगशाला इत्यादि में ले जाने की व्यवस्था होनी चाहिए। साथ ही, स्कूल के अतिरिक्त अभिभावकों और मित्रों को भी ऐसे स्थानों पर ले जाने के लिए बच्चों को प्रोत्साहित करना चाहिए। शिक्षा और संस्कृति के एक साथ अधिगम से हम मानव मूल्यों को स्थापित कर सकेंगे, समाज में समरसता ला सकेंगे, अपनी धरोहर को संरक्षित रख सकेंगे और सबसे बढ़कर युवाओं में स्वाभिमान और गौरव की अनुभूति ला सकेंगे।

डॉ0 दिनेश कुमार गुप्ता                                                                                  

प्रवक्ता, अग्रवाल महिला शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय,

गंगापुर सिटी, जिला-सवाई माधोपुर (राज.) 322201

 

 

 

 

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