हमारा गाँव

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नदी किनारे गाँव हमारा,

टेढ़े-मेढ़े  गलियारे॥

मिट्टी की दीवारें घर की,

दादू हैं सबसे न्यारे॥

 

हर घर में है गैया-बछड़ा,

हर घर में है दूध-दही।

खेतों में लहराती फसलें,

खुशियों से है भरी मही॥

 

हर कोई में प्यार भरा है,

सुख-दुःख के सब हैं साथी।

कोई झूला झूल रहा है,

कोई देख रहा हाथी॥

 

जब कोई पाहुन आ जाता,

घर भर सेवा करता है।

बड़े स्नेह से और रुको का,

आग्रह करता रहता है॥

 

सब करते सम्मान सभी का,

सब की प्रीति निराली।

रंग-बिरंगे फूलों को,

दे जाते मैकू माली॥

 

बंशी काका गैयों का,

चारा ले करके आते।

कुइयाँ से पानी निकाल,

फिर सबको खूब पिलाते॥

 

ललुआ चाची रोज़ साँझ मॉ,

माँ का हाथ बँटाती।

खाना खाय बाद ढोलक ले,

सोहर, बनरा गाती॥

 

बापू रमई काका के संग,

आल्हा मिलकर गाते।

जगनू चाचा नाच-नाच के,

देवी गीत सुनाते॥

 

प्रेम और करुणा का संगम,

गावों में ही मिलता।

अपने पन की मधु-मिठास का,

रस रसना से रिसता।

 

रिश्तों की इस बगिया में,

हम सब मिल करके रहते।

एक दूसरे का सम्बल बन,

आगे बढ़ते रहते।

 

ना चिंता ना आस किसी की,

सब कोई है अपना।

आओ गाँव चलें वापस अब,

पूरा कर लें सपना॥

 

ये आनंद बड़ा ही अद्भुत,

जो पावे सो हरषै।

ऐसा सुख ना मिले जिन्हें,

वो आजीवन भर तरसे॥

 

प्रो० सत्येन्द्र मोहन सिंह

रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली

 


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