अस्तित्व

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 नहीं! तू रुकी नहीं है,

नहीं! तू थमी नहीं है।

बस थोड़ी ठहर गई है,

ज़रा-सी सिमट गई है।

जैसे कोई नदी,

कोई रुकी हुई नदी।

गहरी,

पर ठहरी हुई।

शब्दों को

मन में समेटे हुई।

वेग नहीं रहा,

पर चाल वही है।

बह तो रही है,

पर ढाल नहीं है।

जैसे भूल सी गई हो,

वज़ूद अपना।

अपना वह लेखन का

सपना।

पर आँख खुलेगी,

देर-सवेरे।

चाल बढ़ेगी,

धीरे-धीरे।

फिर बहेगी,

कल-कल धारा।

समेटे जिसमें,

संसार वह सारा।

हाँ! तू रुकी नहीं है,

हाँ! तू थमी नहीं है।

बस ज़रा-सा भूल गई है,

अपने अस्तित्व को भूल गई है।

 

-दीक्षा शर्मा

गोरखपुर,उत्तर प्रदेश

 

 

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