ऐसा संविधान कहता है।
पर सच कहूं तो अब भी डर लगता है।
डरती हूं अपने मन की बात कहने में।
अनुभव कहता है भला है बस चुप रहने में।
दफ्तर में हो जाए यदि देर तो ,
डरती हूं घर जाने में।
घेर लेती है चिंता क्या बनाऊगी खाने में।
सहेली से फोन पर बात करते भी कतराती हूं।
मैं खुश हूं सबको यही बताती हूं।
माँ पापा भाई बहन इनसे क्यों मिलना है?
सास ससुर और देवर ननद बस इनमे ही रहना है।
तुमको दफ्तर में हो देरी तो बहुत थका होगा बेचारा
ऐसा कह माँ सर पर तेल भी रखती है।
किंतु बहू को हो यदि देरी तो माँ शक यूँ करती है?
घर लौटूं तो मिले एक गर्म चाय का प्याला
ऐसा मेरा भी मन करता है।
स्त्री पुरुष सब एक बराबर हैं।
ऐसा संविधान कहता है।
पर सच कहूं तो अब भी डर लगता है।
प्रज्ञा पांडेय (मनु)
वापी गुजरात