कलम की व्यथा

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 इक कलम थी गुमसुम सी,

टेबल पर यूँ ही पड़ी हुई।

झकझोरा जब मैंने,

तब उठकर खड़ी हुई।

बोली क्या बात है बताओ जरा,

मत कहना  कुछ लिख जाओ जरा।

 

मैंने कहा कितनों की आवाज हो तुम,

मत रुको लिखो तुम

दर्द जो दबा दिए जाते यहाँ ,

बयां कर सकती उसे आज हो तुम।

लिखो हो रहे भ्रष्टाचार को तुम,

लिखो निर्भया के बलात्कार को तुम।

 

कहो जनता के बातों को,

बहरे नेता तक न पहुंचा ओगी।

जिसे फक्र है तुम पर,

उससे मुंह मोड़ पाओगी।

अरे महान इतिहास लिखें हैं,

अब तक ना जाने कितने तुमने,

 

कई कारनामे खास लिखें हैं

हां लिखी मैंने पहले,

जो मुझे गौरवान्वित किया है

कुछ ऐसा लिखा जिसने,

मुझे आनंदित किया है।

 

अब क्या लिखूं लूट रही दुहिता (बेटी)यहाँ ,

बोल क्या लिखूं  छिन रही

माँ भारती की अस्मिता यहाँ ।

कैसे लिख दूं कि भाई भाई ,

रक्त के प्यासे हैं।

 

कैसे लिख दूं कि पल में,

 बदलते यहाँ  नेताओ के पासे हैं।

कलम रुकी, सिसकती हुई बोली,

अब लिखते लिखते थक चुकी हूं

मत बोलो अब लिखने को,

अब मैं पक चुकी हूं अब मैं पक  चुकी हूं।

आलोक कुमार आनन्द

 

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