दीपक बाबू एक सरकारी नौकरी में अच्छे पद पर कार्यरत थे.अपने दोनों बेटियों की शादी स्नातक तक की सामान्य शिक्षा के बाद हीअच्छे सरकारी नौकरी वाले,कुलीन परिवारों में करके बहुत ही प्रसन्न रहते थे.
उनका इकलौता छोटा बेटा सार्थक भी था,जो अब आइआइटी से बी-टेक और मैनेजमेंट तक शिक्षा के बाद लाखों के पैकेज पर बड़े कॉरपोरेट घराने में नौकरी करने लगा था.दीपक बाबू का परिवार अपने समाज, विरादरी तथा परिचितों में एक संपन्न,खुशहाल एवं आदर्श परिवार की योग्यता रखता था.
सारे विरादरी में सार्थक की पुरजोर चर्चा होने लगी थी.उसकी शादी को लेकर दीपक बाबू पर दबाव पड़ने लगे थे.वे मन-ही-मन अच्छे और सर्वगुण संपन्न रिश्तेदारों की टोह में रहने लगे. इसी क्रम में सार्थक से उसकी इच्छा जानने की यदा-कदा कोशिश की.
"अब मैं आपको अपनी इच्छा क्या बताऊं पापा ,जैसा आप लोग उचित समझें करें.परन्तु अभी कम-से-कम दो-साल और छोड़ दें तो ठीक रहेगा!"
"अब पढ़ाई-लिखाई और अच्छी नौकरी के बाद अब कौन सा लक्ष्य बाकी रहा."
दीपक बाबू के पूछने पर वह कोई उत्तर नहीं देता.उनके तरफ से इस प्रकार के अनेक प्रयास के बाद कोई सफलता नहीं मिली.दो वर्षों के बाद भी अपरिवर्तनीय स्थिति देख,वे उदास और चिंतित रहने लगे.
अचानक किसी काली छाया का प्रभाव इनके हंसते-खेलते परिवार पर छा गया.
सार्थक की मां एकाएक सार्थक के शहर का ही तथा उसके पसंद की अनुभा नाम की किसी लड़की के बारे में प्रस्ताव रख,दीपक बाबू से प्रतिक्रिया जाननी चाही.
वे भविष्य के गर्त में पल रहे पटकथा की बात सोच वर्षों कोई उत्तर नहीं ढूंढ पाए.
पटकथा आगे बढ़ती रही.एक दिन सार्थक ने अपनी मां को दृढ़तापूर्वक फोन किया,
"मां आप और पापा आ जाएं अनुभा के साथ शादी की तिथि,शुभ मुहूर्त,स्थान तथा अन्य आवश्यक व्यवस्थाएं उसके पापा-मम्मी कर चुके हैं.आपलोग के आने का इंतजार है."
"ठीक है बेटा ..........!"
कह आगे वो कुछ बोल नहीं सकीं.उनकी आंखें अचानक बहने लगीं. बगल में बैठे उसके पापा बिना सुने भांप गये थे.इसके आगे वे खंडित होते अरमानों की कथा नहीं सुनना चाहते थे.
- ललन प्र सिंह
जगदेव पथ,
पटना-८०००१