बाबा रहे थे कुर्सी पर ऊंघ
मन में आया एक विचार
दूंगी बाबा को विद्या ज्ञान
पहुंची स्लेट चाक लेकर
विस्मित बाबा ने खोली आंखें
समझ नहीं पाए कुछ भी बात
मुंह पर सजी बड़ी मुस्कान
बाबा चलों पढ़ना सिखलाऊं
इस दुनिया का ज्ञान कराऊं
बाबा ने ली चादर अपनी तान
किसको दूं मैं विद्या का दान
मैं भी ठहरी एकदम जिद्दी
हारती नहीं हूं धुन की पक्की
मैंने चादर दी उनकी उतार
पढ़ना लिखना सीखों आज
बाबा ने फिर अपनी छड़ी उठाई
कमर में मेरे धम्म से लगाई
भागे छड़ी उठाकर मेरे पीछे
तब मैंने भी वहां से दौड़ लगाई
बाबा पीछे और मैं थी आगे
बाबा ने दौड़ा दौड़ा कर पीटा
कान पकड़कर मैंने सौगंध खाई
फिर नहीं बूढ़ों की करूं पढ़ाई
अलका शर्मा,
शामली, उत्तर प्रदेश