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सृजन समूह शामली, उत्तर प्रदेश

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शनिवार, 12 मार्च 2022

स्वास्थ्य और रोग

    स्वस्थ का अर्थ है स्व में स्थित होना।अर्थात अपने मे रहना। स्वयं पर स्वयं का नियंत्रण,अनुशासन होना।
अपने मूल स्वभाव में,अपनी मूल प्रवृत्ति में जीना। निरोग शरीर,निर्मल मन,पवित्र विचार,शुद्ध आत्मा जिसके पास है वही स्वस्थ है। स्वास्थ्य अनमोल खजाना है।कहा भी गया है"पहला सुख निरोगी काया"।

रोगों के प्रकार :

कुछ पीड़ाएं व रोग दुर्घटना,हादसा,वंशानुगत कारण,पूर्व जन्मों के कर्म फल के रूप में,संक्रामक रोग,प्रदूषण या वातावरण के प्रभाव से आते हैं। इन पर हमारा प्रत्यक्ष रूप से कोई नियंत्रण नहीं होता। परंतु कुछ रोग ऐसे होते हैं जो अपने ही कार्य व्यवहार के कारण अपने मन-इंद्रियों के वशीभूत होकर या अज्ञानता वश की गई गलतियों का परिणाम होते हैं।इन पर पूर्णतया अपना नियंत्रण संभव है। यहां पर हम इन्ही के बारे में चर्चा करेंगे।

रोगों के कारण :

आप अच्छी कंपनी की अच्छी से अच्छी मशीन खरीदें। उसके प्रयोग के कुछ दिशा-निर्देश दिए होते हैं। यदि आप उनका पालन करते हैं तो आपकी मशीन ठीक चलती है।अन्यथा कंपनी भी उसकी जिम्मेदारी नहीं लेती।हमारा शरीर एक अद्भुत प्राकृतिक मशीन है।इसके प्रयोग में यदि आप प्राकृतिक नियमों को तोड़ते हैं,अप्राकृतिक जीवन जीते हैं या किसी भी प्रकार की अति करते हैं तो परिणाम रोगों के रूप में भुगतने पड़ेंगे।आप नियम जानबूझकर तोड़ें या अनजाने में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि विष का सेवन जानबूझकर करें या अनजाने में परिणाम हानिकारक ही होगा। प्रायःरोगों के निम्न कारण होते हैं-

गलत खान पान :

अक्सर आदतवश,स्वाद के वशीभूत होकर,मन व जीभ के गुलाम बनकर हम अधिक,चटपटा,गरिष्ठ, अधिक तैलीय,अप्राकृतिक,अभक्ष्य,बाजारु,अम्लीय भोजन खाते रहते हैं। जब तक शरीर की मशीनरी नई होती है झेलती रहती है फिर जवाब दे देती है और अनेक रोग पैदा हो जाते हैं। कम पानी पीना क्षारीय भोजन ( सलाद,फल, छिलके वाली दाल आदि) न लेना। आवश्यकता से अधिक वसा,कार्बोज युक्त भोजन हमें बीमार बना देता है।गलत खानपान से मोटापा,कब्ज,बदहजमी,पेट विकार होते हैं। पेट भोजन में से पोषक तत्वों को खींचकर पूरे शरीर को पोषण देता है लेकिन यदि पेट ही बीमार हो जाए तो यह सभी अंगों को बीमारियां बांटता है। आयुर्वेदानुसार हमें ऋत भुक,हित भुक और मित भुक होना चाहिए अर्थात  ऋतु अनुसार खाएं,जो अपने लिए हितकारी हो वह खाएं और कम खाएं।

गलत रहन-सहन,आचार-विचार :

आजकल की भागदौड़,आधुनिकता,शहरी जीवन शैली के चलते हम प्राकृतिक वातावरण से दूर होते जा रहे हैं। हमारा शरीर प्रकृति के पांच तत्वों(जल,वायु,आकाश,अग्नि,पृथ्वी)से बना है। प्रकृति से जितना दूर जाओगे उतनी विकृति आएगी।जागने, सोने,खाने का कोई समय नहीं, काम और विश्राम में संतुलन नहीं,काम की अधिकता के चलते अपने लिए समय नहीं। खुली हवा,फुरसत के पल,धूप,शारीरिक मेहनत का कोई महत्व नहीं। शारीरिक श्रम न करने से, व्यायाम न करने से जिन मांसपेशियों का प्रयोग नहीं होता या कम होता है वें निष्क्रिय होने लगती हैं।उनका लचीलापन खो जाता है।परिणामस्वरूप दर्द,खिंचाव,सूजन आदि रहने लगते हैं।रीढ का निचला हिस्सा अर्थात कूल्हे वाला जोड़ शरीर का महाजोड़ है इसमें शिथिलता आ जाए तो शरीर की चुस्ती खो जाती है। आजकल मनुष्य के लिए तो विकास बहुत हो रहा है परंतु मनुष्य का विकास केवल आर्थिक,बौद्धिक स्तर तक ही सीमित हो गया है। शारीरिक,मानसिक,सामाजिक,आध्यात्मिक,भावात्मक विकास शून्य होता जा रहा है।

      अच्छे विचार हमें प्रेरणा देते हैं,आगे बढ़ाते हैं,स्वस्थ रखते हैं। अच्छे विचार औषधि हैं।गंदे विचार भी रोगों का कारण बनते हैं।

प्रतिरोधक क्षमता का कम हो जाना :

विद्युत उपकरणों में सुरक्षा के लिए फ्यूज लगे होते हैं। हमारे शरीर में भी प्राकृतिक रूप से रोग प्रतिरोधक क्षमता होती है।यह रोगों से हमारी रक्षा करती है।यदि हमारे गलत खान-पान,रहन-सहन की गलत आदतों से उसे तीव्र आघात पहुंचे या बार-बार आघात पहुंचता रहे तो यह शक्ति क्षीण हो जाती है।तब आपका शरीर रोग ग्रस्त रहने लगता है। तब दवाइयां भी आपकी मदद नहीं कर पाती। अतः स्वस्थ रहने के लिए इस शक्ति की रक्षा करनी चाहिए।

शरीर में मल का रुक जाना :

हमारे शरीर में श्वांस-प्रश्वांस,भोजन-पाचन,नवीन निर्माण व क्षय निरंतर जारी है। इस कारण शरीर में मल व विजातीय तत्व पैदा होते रहते हैं। उनका निरंतर निकास प्राकृतिक रूप से श्वास,बलगम,पसीना,मल- मूत्र के रूप में होता रहता है। यदि यह मल निष्कासन धीमा पड़ जाए या रुक जाए तो आपको क्रमशः फेफड़े संबंधी रोग,आंख-नाक-कान-गले के रोग, चर्म रोग,पेट के रोग,गुर्दों के रोग व उनसे जुड़ी  सैकड़ों समस्याएं होने लगती हैं।

आखिर मल रुकने से बीमारी क्यों होती है?

हम निरंतर श्वास द्वारा ब्रह्मांड से प्राण ऊर्जा ग्रहण करते हैं।यह प्राण ऊर्जा शरीर के विभिन्न अंगों में पहुंचकर उन्हें सक्रियता,नव निर्माण का सामर्थ व ऊर्जा देती है। मल एकत्र होने के कारण मार्ग अवरुद्ध होने से प्राण ऊर्जा संबंधित अंगों में कम पहुंचती है या पहुंचती ही नहीं। परिणामस्वरूप अंग कमजोर पड़ जाते हैं व रोग पैदा हो जाते हैं।यदि राजा कमजोर है तो रोग रूपी शत्रु आक्रमण कर ही देता है और विजयी भी हो जाता है।

 भावात्मक आवेग :

        अज्ञानता दुखों का मूल कारण है। काम क्रोध लोभ मोह ईर्ष्या द्वेष चिंता भय आदि। ये मन के भाव हैं।ये नियंत्रित रहें तो कल्याणकारी हैं। अनियंत्रित होकर ये मनोविकार बन जाते हैं।

       अज्ञानतावश,अहंकार के मद में,युवावस्था के जोश में,परिस्थितियों या वातावरण के कारण मनोविकार कब हमारे व्यवहार में बस जाते हैं हमें पता भी नहीं चलता। यदि केवल एक या दो भाव भी अति बढ़ जाए तो विनाशकारी सिद्ध होते हैं।शरीर,मन,बुद्धि व स्वास्थ्य का नाश कर देते हैं।पूर्ण स्वास्थ्य के लिए तन और मन दोनों का स्वस्थ होना आवश्यक है। तन हार्डवेयर है तो मन सॉफ्टवेयर है अतः स्वस्थ रहने के लिए मन से खुश रहें,संतुष्ट रहें,सजग रहें किसी भी भाव को बढ़ने ने दें।

       सोचना मन का स्वभाव है। कोई विचार आया,चला गया। इसका मस्तिष्क पर प्रभाव नहीं रहता। लेकिन एक विचार आया और वह निरंतर बना हुआ है। बार-बार परेशान कर रहा है। चाह कर भी नहीं जा रहा। यह मन को दुखी,अशांत व मस्तिष्क को तनावपूर्ण कर देता है।इसका प्रभाव पूरे शरीर में फैल जाता है। क्रोध,भय आदि भावात्मक आवेग यदि तीव्र आते हैं या लंबे समय तक बने रहते हैं तो अनेक शारीरिक, मानसिक रोग पैदा होते हैं। भावात्मक दुखों मानसिक रोगों को मापने का कोई यंत्र नहीं है न ही कोई पूर्ण सफल इलाज।

       हमारे शरीर में कई अंतः स्रावी ग्रंथियां मस्तिष्क में,गले में,पेट में,मौजूद हैं।जैसे मस्तिष्क में पीनियल व पिट्यूटरी ग्रंथि, गले मे थायराइड ग्रंथि,पेट में यकृत, पेनक्रियाज, पित्ताशय आदि।ये ग्रंथियां अनेक अमूल्य रस स्राव करके शरीर को नियंत्रित,संतुलित,हर परिस्थिति में सक्षम बनाती हैं।भावात्मक आवेगों का प्रभाव मस्तिष्क,स्नायु संस्थान (Nervous system) और इन ग्रंथियों पर सर्वाधिक पड़ता है । इसके प्रभाव से ग्रंथियां निष्क्रिय मंद या अति सक्रिय हो जाती हैं। जिससे शरीर का प्राकृतिक तालमेल बिगड़ जाता है। अनिद्रा,बेचैनी,घबराहट,अधीरता,ह्रदय रोग,मस्तिष्क के रोग,मानसिक रोग,तनाव,शुगर,मोटापा,शरीर में विजातीय तत्वों का बढ़ना,कमजोरी आदि अनेक रोग हो जाते हैं। परिणाम स्वरूप आप की युवावस्था समय से पूर्व समाप्त हो जाती है। आप प्रौढ़ावस्था में प्रवेश कर जाते हैं। फिर आप जीवन जीते नहीं जीवन को ढो रहे होते हैं।

      चिंता नहीं चिंतन करें। विवेक,धैर्य व साहस से काम लें।भावों को नियंत्रण में रखते हुए भावात्मक आवेगों से बचना चाहिए।

त्रिदोष प्रभाव :

वात,पित्त,कफ संतुलित रहें तो ये आवश्यक तत्व हैं। असंतुलित होने पर यह दोष कहलाते हैं।यदि लंबे समय तक आप वात प्रधान भोजन करते हैं तो शरीर में वात (वायु) प्रभाव बढ़ जाएगा। यदि आपकी प्रवृत्ति कफ़ प्रधान है तो आपको कफ बढ़ाने वाले आहार-विहार से बचना चाहिए। यदि हम जागरूक रहें तो त्रिदोष व उनसे होने वाले सैंकड़ों रोग हमें नहीं सताएंगे। यदि स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता है व निरंतर प्रयास है तो रोग ज्यादा नहीं आएंगे।बार-बार नहीं आएंगे।आएंगे तो भी ज्यादा हानि पहुंचाए बिना जल्दी लौट जाएंगे।

                            पुष्पेंद्र कुमार सैनी (प्र00)

                            प्राथमिक विद्यालय मानकपुर

                            थानाभवन (शामली)

 

 

 

 

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