उपभोक्तावाद की अंधी दौड़ में
मानव सरपट इतना भाग रहा
अपने सुख की खातिर यह तो
प्रकृति से अपना नाता तोड़ रहा
कितने प्रदूषण फैलाएं मानव ने
जल संचय को इसने छोड़ दिया
बर्बाद कर रहा जल को इतना
कुछ नहीं बिल्कुल सोच रहा
एक बार जो चल जाए मोटर
बंद करना ही वह तो भूल गया
नालियों में बहता रहता पानी
मानव कितना बेपरवाह हो गया
जीवन की यह अनमोल धरोहर
क्यों तू इसको मिटा रहा
पुरखों की जलसंचय की बातें
नादानी में सब कुछ छोड रहा
कुछ तो सोचों कुछ तो समझों
क्या बस अपनी अपनी सोच रहा
भावी पीढ़ी को क्या देकर जाओगे
क्यों नहीं मन में यह सब तोल रहा
हरी भरी अपनी रत्न वसुन्धरा
इसका ना तुम विनाश करों
सुरभित पुलकित रहे सर्वदा
ऐसे ही सुन्दर काज करों
प्राकृतिक संसाधनों का दोहन
आज मानव ने इतना कर डाला
डोल ना जाए प्रकृति अपनी
तुम यह विनाश अब बंद करों
-अलका शर्मा स०अ०
क०उ०प्रा०वि०भूरा, शामली (उ०प्र०)