कितना सुंदर होता बचपन।
खिल जाता था पूरा तन मन।।
कुत्ते बिल्ली घर पर आते।
चुन्नू मुन्नू साथ खिलाते।।
पेड़ो की होती हरियाली।
चढ़ते उस पर डाली-डाली।।
सुंदर दिखते बाग बगीचे।
बैठ खेलते बच्चें नीचे।।
बैलो की गाड़ी में चढ़ते।
आगे-आगे सब है बढ़ते।।
खुला-खुला सा होता आंगन।
कितना सुंदर होता बचपन।।
माँ आँगन चूल्हा सुलगाती।
भोजन उसमें रोज पकाती।।
साथ-साथ मिलकर है रहते।
कभी किसी से कुछ ना कहते।।
रंग-बिरंगे चिड़िया आती।
चींव-चींव की गीत सुनाती।।
दौड़-दौड़ भौंरा भी आते।
पुष्प रसों को वह पी जाते।।
-प्रिया देवांगन "प्रियू"
कबीरधाम, छत्तीसगढ़