अग्निगर्भा हूँ मैं

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 उपलों की आग पर

जलती लकड़ियां

खदकती दाल

सिकती रोटियां

जलती आंखें धुएं से

फिर भी नित्यप्रति वही दोहराव

क्या कभी नहीं सोचती माँ

हमारी क्षुधातृप्ति से इतर

अपनी परेशानी

हर वक्त परिवार के सदस्यों की

सुख-सुविधा और खुशियों से अलग

अपने निज दुख सुख के बाबत

नहीं सोचता उसके बारे में कोई

जिस तरह  सोचती है वह हमेशा

उन सबकी खातिर

वह एक नदी है सदानीरा

हमेशा बहती है

हवा है शीतल

निरंतर चलती है

आग है

लगातार जलती है

छूट गई माँ गाँव  में

पढ़ने लिखने खेलने में गुजर गया वक्त

पता ही नहीं चला

किस आग में जलने लगा मैं

कितनी कितनी तपिश

कितनी आशाएं, आकांक्षाएं और कोशिशें

कभी उत्साह फिर

असफलताएं, निराशा और कुंठाएं

उबरना चलना रुकना ठहरना

माँ रही आई गाँव  में

चिंता में डूबी चिर योद्धा सी

अडिग

बहुत आग थी मन में

धीरे धीरे शमित होती रही

अवरुद्ध होती रही ताजा हवा

एक बिजूका खड़ा था

सुविधाओं के खेत में

एक ठूंठ वन में

जंगल की आग जला देती है सब

वृक्ष, वनस्पतियां और दूब

सुखा देती है जल झरनों, छोटी नदियों और झीलों का

जीविकोपार्जन, भविष्य, अगली पीढ़ी

गाँव , घर, खेत छूटे

माँ भी समाई

अग्निगर्भ में

जी रहा हूं आकाश के अनंत विस्तार में

एक क्षुद्र प्राणी पृथ्वी का

किसी अन्य ग्रह से नहीं आया

लेकिन एक नए विश्व की आशा में

सदियों से

अग्निगर्भा मैं।

-शैलेन्द्र चौहान

जयपुर, (राजस्थान)

  

 

 

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