आत्म-बोध

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        सुखिआ की अव्यक्त अंतर्वेदना थी,

        "गधे बढ़ाए हो, उसी तरह आदमी भी बढ़ा लो, इतने सारे कपड़े अकेले मैं रोज धो-धो कर कब तक मरती रहूँगी ? कहती हूँ ! कुछ घर छोड़ दो। पर यह है कि मानता ही नहीं। दिन, सप्ताह, महीने और साल बीत गए इंतजार करते-करते, पर यह तो आदमी रखने का नाम ही नहीं लेता।"

   परंतु ये तर्कसंगत शब्द उसके हलक के बाहर नहीं आ पाते थे। वह अपना दाम्पत्य और व्यवसाय का खयाल कर इसे नियति मा लेती थी। वह अनवरत एक के बाद एक कपड़े पाट पर पटकते जा रही थी। कदाचित ये  व्यथित शब्द उसके रगों में ऊर्जा पैदा कर रहे थे, जिसे वह ग्राहकों के वस्त्रों के पटकने में व्यय कर रही थी। बगल में बैठा उसका पति बाढ़ू एक बड़े बर्तन में नील और पानी फेंटते हुए बोला, “सुनती हो! ये दोनों गधे अपनी हरकत से बाज नहीं आएंगे, आज दूसरा दिन है न! इनके उपवास का!----------- मेरी इच्छा थी कि एकाध दिन और रह जाते तो दुरुस्त हो जाते।"

गुस्सायी सुखिआ को सामने मासूम बने खड़े दोनों गधों को देख, दया या गई।

“नहीं, नहीं, अब इन पर ज्यादा अत्याचार ना करो!” सुखिआ को अपने स्वर में उसके लिए पीड़ा कि संवेदना देते देख बाढ़ू ने अपनी जुबान थोड़ी और तल्ख की “नहीं! आज भर इन निक्कमों को उपवास कराना जरूरी है।"

दोनों गधे निर्विकार भाव से पागुर करते हुए खड़े, जैसे सब आत्मसात कर रहें हो। मालकिन के अनुनय को इतनी आसानी से ठुकराते देख मानो उनके चेहरे कि दारुण-त्रासदी अंदर ही अंदर अंतर्वेग और मूक विद्रोह की कहानी गढ़ रही हो। बाढ़ू को मजा चखाने का संकल्प मन-ही-मन ले रहे हों।

     शाम को बाढ़ू उन दोनों पर कपड़ा लादकर घर की ओर चला। तीनों शहर कि गंदगी बहने वाले नाले के किनारे- किनारे चले जा रहे थे। मौका पाते ही दोनों गधे अपने पिछले पाँवों से दुलत्ती का नजाकत किये और नाले में कूद पड़े। बाढ़ू परेशान। कपड़े तो सारे-के-सारे गंदे हो ही गए परंतु दुर्भाग्य से ये दोनों पकड़े गए। वह इन्हें दरवाजे पर बांध कर डंडे से धुलाई की तैयारी में लगा था। तभी सुखिआ अंदर से बाहर आयी । वस्तुस्थिति देख वह खौल गई,       “करमजले! मैंने कहा था न! अब और अत्याचार ये नहीं सहेंगे। ------------- अत्याचार की भी हद होती है। अरे! ये थोड़े ही सुखिआ है, चाहे जितना भी ला कर दे दो, पाट पर पटकती रहे, --------- अरे अपराधी हो जाएंगे !"

    उसमें आज सुखिआ की बात अंदर तक उतर आई थी। वह डंडा फेंक कर तत्क्षण उसके आगे चारा की टोकरी डाल दिया। दोनों गधे विरोध के सुख की अनुभूति करते हुए भूँसा चबाने लगे।

 

ललन प्रसाद सिंह

403,श्यामकुटीर एपा.,

सिद्धार्थ नगर,जगदेव पथ,

बेली रोड, पटना, बिहार

 

 

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