स्वर्णिम पन्नों को जब पलटा;
नालंदा के टूटे खंडहरों में,
प्रखर बोध पुंज -सा चमका।
आदित्य- सम प्रखर प्रभा,
निर्मल निरंतर ज्ञान -सुधा।
अलौकिक ज्ञान का परावार,
संपूर्ण विश्व में ख्याति प्राप्त
रत्नरंजक, रत्नोदधि,
रत्नागिरी रत्नों से सज्जित।
चीन,जापान,तुर्की से शागिर्द,
आते ज्ञान करने को अर्जित।
मगर बुझाने को यह दीप,
अधीर तुफां और आंधी।
आखिर प्रयास हुआ सफल,
बन गया नालंदा कल।।
अहंकारी के अहम्मन्यता ने,
लगा दिया सागर में आग।
नेस्तनाबूद कर नालंदा को,
परोपकार का दिया इनाम।।
इतिहास की वो काली रात,
था जीता जब अहंकार।
महीनों तक धू -धू कर,
जलती रही लाखों किताब।।
ज्ञान मंदिर की भूमि पर,
बह रही थी रक्त की धार।
निहत्थों पर शस्त्र उठा कर,
बिछा रहे थे लाश पर लाश।।
मत्सर -अग्नि में बैठी उर्वी,
उत्ताप से दौबर्ल्य हो झुलसी।
अग्नि वर्षा ना किया मार्तण्ड,
फिर क्यों बहे धरा श्रमकण?
देख दृश्य व्याकुल गगन,
नयन भर रोए मेघ सघन।
निरालम्ब प्रहरी गिरिराज,
दर्द से उठी धरा कराह।।
हुआ अस्त जो प्रभाकर,
आया ना किरणें फैलाकर।
महीनों तक ना हुआ विहान,
प्रकाश समेट लिया शशांक।
दर्पी - दंभ की ज्वाला में,
ज्ञान -मंदिर हो गया राख।
जीत गया अहि का दंभ,
नालंदा विश्वविद्यालय का अंत।।
इतिहास के स्वर्णिम पन्नों पर,
बच गई है बस सुनहरी याद।
नालंदा - भग्नावशेष आज भी,
बयां करती गौरवशाली इतिहास।।
-स्वाति सौरभ
भोजपुर, बिहार