अवधेश ने कमरे को एक बार फिर निहारा | करीने से सजे हुए बेंच और टेबल, जिस पर जगह - जगह धूल जम गई थी | सामने लगी ट्यूबलाइट उसको जैसे मुँह चिढ़ा रही थी | वो अपने अवचेतन में कहीं गहरा धंँसता चला गया | आज से दस साल पहले जब उसने ये कोचिंग इंस्टीटयूट शुरू किया था | ये सोचकर की जो तकलीफ उसे गाँव में उठानी पड़ी है | वो तकलीफ आसपास के लोगों को नहीं उठानी पड़े | वो, शिक्षक ही बनेगा | कितना अच्छा तो पेशा है | समाज में लोग कितना सम्मान देते हैं | सब लोग प्रणाम सर..... प्रणाम सर कहते नहीं थकते, और, उसे शुरू से किताबों से कितना लगाव रहा है | खुद भी पढ़ो और दूसरे लोगों को भी शिक्षित करो , लेकिन, इधर कोरोना के कारण पिछले एक - सवा साल से कोचिंग बंद था | सरकार सब कुछ खोलने की अनुमति देती है, लेकिन कोचिंग इंस्टीटयूट पर जैसे उसे पाला मार जाता है | जिम, रेडिमेड, शॉपिंग मॉल , बस, ट्रेन, हवाई जहाज सब खुल गये हैं , लेकिन, सरकार को पढाई से ही चिढ़ है | कोचिंग वाले टैक्स नहीं देते ना! इसलिए भी सरकार इन लोगों को कोचिंग इंस्टीटयूट खोलने की अनुमति नहीं देती | अगर वो भी कोई जिम या शॉपिंग मॉल चलाता तो क्या सरकार उसको रोक लेती ? नहीं बिल्कुल नहीं !
वो बहुत कोशिश करता रहा कि वो अपना कोचिंग इंस्टीटयूट बंद ना करे, लेकिन, घर में छोट- छोटे बच्चे हैं | उनके खाने पीने के लाले पड़ गये हैं | पिताजी को डॉक्टर को दिखाना है | दिसंबर आधा गुजर गया है | माँ का स्वेटर भी लेना है | ठंढ़ से काँपती रहती है | आखिर बूढ़ी काया में ताकत ही कितनी होती है |
स्वेटर जगह - जगह से फट गया है , और स्वेटर के कुछ हिस्से तो छीजकर आर- पार भी दिखने लगे हैं | कई दिनों से माँ कह रही है | घर के अंदर तो पहन सकती हूँ, लेकिन, बाहर निकलते मुझे शर्म आती है | आखिर, लोग क्या कहेंगे | एक शिक्षक की माँ फटा हुआ स्वेटर पहने हुए है ! रमा ने भी कई बार शाल के लिए तगादा कर दिया है | कहती है आँगनबाड़ी जाते हुए ठंढ़ लगती है | अब रमा को शाल भी एक दो दिन में खरीदकर देता हूँ | आखिर रमा की आँगनबाड़ी वाली नौकरी ना होती तो आज वे लोग कहीं भीख माँग रहे होते | उसको मिलने वाले छह हजार रूपये से ही तो घर अब तक चल रहा है | नहीं तो इस आपदा काल में कौन किसकी मदद करता है ? सबसे जरूरी काम है पिताजी को डॉक्टर को दिखाना | उनकी खाँसी रुकती ही नहीं | आखिर, कितने दिनों तक मेडिकल से लेकर सिरप पिलाई जाये | सारी कंपनियों के सिरप एक- एक करके देख लिए | जितने रूपये सिरप और गोलियों पर खर्च किये | उतने में तो किसी अच्छे डॉक्टर को दिखला देते, लेकिन, डॉक्टर भी पाँच सौ से कम में नहीं मानेगा | कोरोना के समय में एक तो डॉक्टर सामने से देखते नहीं | ऑनलाइन दिखलाना है तो दिखलाओ नहीं तो जै राम जी की |
उसने बेंच को छुआ तो धूल के साथ - साथ जैसे उसके हाथ में अतीत के खुरचन भी आ गये | टीचर्स डे और वसंत पंचमी पर कितना सजाते थे छात्र इस इंस्टीटयूट को | कैसा लकदक करता था यही इंस्टीटयूट
अवधेश को कमरे के एक- एक चीज से प्रेम था | उसने इंटीरियर डिजाइनर से अपने इंस्टीटयूट को सजवाया था | गुलाबी पेंट, बढ़िया कार्पेट, अच्छी कुर्सी और मेज | शानदार ब्लैकबोर्ड, टेबल के ऊपर सजे भाँति- भाँति के पेन | कैसे वो सफेद कमीज और काली पैंट पहन कर नियम से सुबह छह बजे ही नाश्ता- पानी करके चल देता था | फिर, देर रात गये ही घर लौटता | उसने नीचे ऊपर सब मिलाकर तीन - चार कमरे ले रखे थे | दो तीन और लड़को को भी रख लिया था | पहले काम के घंटे बढ़ते गये | उसके अंदर एक जूनून सा छाने लगा | फिर, छात्रों की बढ़ती संख्या को देखकर उसने रूम बढ़ा दिये | फिर, टीचर भी बढ़ाने पड़े | मिला जुलाकर साठ सत्तर हजार रूपये महीने में वो कमा ही लेता था | फिर, धीरे - धीरे नई तकनीक आने से उसने कुछ कम्प्यूटर भी खरीद लिये और भी कई कमरे किराये पर ले लिये थे | और स्टाफ़ बढाया | खूब मेहनत करने लगा | वो अपने साथ- साथ और लोगों को भी रोजगार दे सकता है | ये सोचकर ही उसका सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था , और हमेशा उसे इस बात की खुशी रही | सब लोग हँसी खुशी से जी रहे थें | तभी कोरोना ने दस्तक दी और सबकुछ जहाँ का तहाँ जमकर रह गया | रोज सड़कों पर दौड़ने वाली उसकी स्कुटी घर में एक किनारे खड़ी हो गई | कभी - कभार कोई सामान लाने जाना होता तो, स्कुटी के भाग खुलते और वो रोड़ पर दौड़ती | नियमित आनेवाले टीचर्स अब दिखने बंद हो गये | पहले उसने औने - पौने दाम में कम्प्यूटर बेचे | शुरूआती दौर में तो तीन - चार महीने का लंबा लॉकडाउन लगा | अचानक से आने वाले पैसे आने बंद हो गये | खर्च ज्यों- का -त्यों | बहुत बचत करने की आदत शुरू से नहीं रही | पैसा आता था तो पता नहीं चलता था | कितना भी खर्च कर लो | कोई फर्क नहीं पड़ता था , लेकिन, अचानक से पैसे आने बंद होने से दिमाग जैसे सुन्न पड़ने लगा | जरुरी चीजों को तो नहीं टाला जा सकता था , लेकिन, गैर जरूरी चीजों पर सख्त पाबंदी लगा दी गई | चाऊमिन, पिज़्ज़ा मोमोज़ सब बंद |
फिर, इंस्टीटयूट के मकान मालिक का तगादा बढ़ने लगा | नीचे के अतिरिक्त लिए गये कमरे को गैर जरूरी समझकर छोड़ दिया गया | ये सोचकर कि पता नहीं कितना लंबा लॉकडाउनचलेगा , और हर महीने का किराया भी चढ़ता जायेगा | सारे - के सारे कम्प्यूटर पहले ही बिक चुके थें | कमरे वैसे भी खाली ही थे | सारे फर्नीचर को दो कमरों में समेटा गया, और कमरों की चाभी साल भर पहले ही मकान मालिक को सौंप दी गई | ये सोचकर कि आज नहीं तो कल जब सब कुछ ठीक - ठाक हो जायेगा तो फिर, से कमरे को किराये पर ले लिया जायेगा | लेकिन, जब दूसरी लहर आयी और फिर, डेढ़ दो महीने का लॉकडाउनलगा , तो रमा जैसे बिफरती हुई बोली - " क्या, कोचिंग इंस्टीटयूट के अलावा दूसरा कोई काम नहीं है ? पेपर बेचो, सब्जी बेचो, फल बेचो कुछ भी करो | लेकिन, अब घर की हालत मुझसे देखी नहीं जाती , और मेरी आँगनबाड़ी की कमाई से कुछ होने जाने वाला नहीं है | वो ऊँट के मुँह में जीरा का फोरन जैसा साबित हो रहा है | तुम जल्दी कुछ करो | नहीं तो मैं बच्चों को लेकर अपने मायके चली जाऊँगी | " और यही सोचकर अवधेश ने ये फैसला किया था, कि अब और इंतजार करना मूर्खता के सिवाय कुछ नहीं है | हो सकता है सालों कोरोना खत्म ना हो | तब तो सालों उसका इंस्टीटयूट बंद रहेगा | रमा ठीक कहती है | मुझे अपना इंस्टीटयूट बंद करके कोई और काम करना चाहिए | नहीं तो घर कैसे चलेगा ? और यही सोचकर उसने एक जरूरत मंद संस्था को बहुत कम कीमत पर अपना फर्नीचर बेचने का फैसला किया था |
" हुँ... हाँ... कौन रघुवीर अच्छा ऑटो वाला आ गया | चलो अच्छा है | "
अवधेश के भीतर कुछ पिघला, कार्पेट, दीवार, टेबल या छत या कि दस साल का सुहाना सफर और उसकी आँखे भींगनें लगी | उसने आखिरी बार कमरे को गौर से निहारा | लगा जैसे सब कुछ छूटा जा रहा है, और वो किसी भी कीमत पर उसे नहीं छोड़ना चाहता |
रघुवीर ने पूछा - " क्या हुआ भईया..? "
लेकिन, अवधेश, रघुवीर की बातों का कोई जबाब नही दे सका |
बस भर्राये गले से बोला - " कुछ नहीं रघुवीर.. | "
शाम का धुँधलका गहराने लगा था | उसे लगा कमरे को पलटकर अंतिम बार देख ले | लेकिन, उसकी हिम्मत नहीं पड़ी | धीरे - धीरे नीम अंधेरे में वो सीढ़ियों से नीचे उतर गया |
महेश कुमार केशरी
बोकारो, झारखंड