घर से निकले थे शहर को
कर रहे थे रोजगार की तलाश
भूखे प्यासे गली गली घूमे
थक गए अब तो हो गए हताश
दब गई आवाज मशीनों का है शोर
चलो वापिस चलें अपने गांव की ओर
मशीनों की नगरी है यहां
इंसानों की कहाँ सुनते हैं
आदमी को ठगने के
ताने बाने सब बुनते हैं
कदम कदम पर बैठे हैं बेईमान और चोर
चलो वापिस चलें अपने गांव की ओर
कारें फैक्ट्रियां धुआं उगल रही
गंदगी से भरे हैं शहर के सब नाले
धुआं अंदर जा रहा सब के
फेफड़े हो गए सभी के काले
गुनाह के धंधों में चलता है पैसे का ज़ोर
चलो वापिस चलें अपने गांव की ओर
इंसानों की बहुत भीड़ हर जगह है लगी
हर कोई उस भीड़ में खुद अकेला है
चलते फिरते हाड़ मांस के पिंजरे हैं लगते
कहने को तो ज़िन्दा इंसानों का मेला है
ऐसा लगे जैसे कोई खींच रहा अपनेपन की डोर
चलो वापिस चलें अपने गांव की ओर
आदमी की मजबूरी यहां सरेआम बिक रही
ईमानदारी बेईमानी के आगे नहीं टिक रही
बातों से लेकर खाने तक हर चीज़ में खोट है
इंसानियत बाजार में आज सरेआम पिट रही
आदमी के शरीर से खेल रहे मिलावटखोर
चलो वापिस चलें अपने गांव की ओर
कितना सकूं है मेरे गांव में शहर में वो बात कहां
जुगनू चमकते हो तारों जैसे ऐसी वो रात कहाँ
हर तरफ ताजी हवा हरियाली है गांव में
गंदगी का आलम है शहर में देखो जहां
जंगल में गाती कोयल नाचते है मोर
चलो वापिस चलें अपने गांव की ओर
रवींद्र कुमार शर्मा
घुमारवीं
बिलासपुर, हिमाचल प्रदेश