हिय हिलत डर से ऐसे, जैसे पीपल के पात ।।
पथिक न बात करहिं, न देहिं भेंटि अकवारि।
अंतिम यात्रा कि रीति टूटी, सबही अपने दुआर।
आपनि जान पियार सबहि,पता चली यहि बात।
परदेशी को किया बिलग,टूटा सबहीं से नात ।।
जान पर अपने जब पड़ी,तब देंहि केहू न साथ।
हरी बिपदा के समय पर,सबहिं बचावहिं माथ।।
अपनी कमाई पर अब से,रखिए केवल आस।
वह नहीं तुम्हारा कुछ भी,जो नहीं तुम्हारे पास।।
रिश्ते जुड़े जग में केवल,अपने अपने स्वार्थ।
कोई जग में अर्जुन बना,कोई बना है पार्थ।।
टूटा फूटा हो चाहे,पर घर जरूर हो अपना।
परदेशों की महल अटारी, हैं केवल सपना।।
देख दशा वर्तमान की,जरा कीजिए गौर।
दादुर मोर पपीहा बोले,चलो गांव की ओर।।
-हरी राम यादव ‘फैजाबादी’
लखनऊ, उत्तर प्रदेश