हर चेहरे पर खौफ है,दहशत है
घर, परिवार का ही नहीं
बाहर तक फिज़ा में भी
अजीब सी बेचैनी है।
हाय ये कैसी बिडंबना है कि
सिसकियां भी सिसकने से
अब तो डर रहीं,
सिसकियां भी अपनी ही नहीं
मानवों की विवशता देख
आज सिसक रही हैं,
सिसकियों में भी संवेदनाओं के
स्वर जैसे फूट पड़े है,
मानवों के दुःख को
करीब से महसूस कर रहे हैं,
शायद इसीलिए सिसकियां भी
चुपचाप सिसक रही हैं,
हिचकियों से बच रही हैं।
शायद नसीहत दे रही हैं
या फिर हौसला देने की
अजीब सी कोशिश कर रही हैं,
तभी तो सिसकियां भी
अपने आप में ही सिसक रही हैं
संवेदनाओं के
नये आयाम गढ़ रही हैं।
-सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा, उ.प्र.