नारी की पीड़ा कैसे समझाऊं
मन में छुपे हैं भेद गहरे
कैसे में इनको तुम्हें बतलाऊँ
सीता बन कर जन्म लिया था
महलों की मैं रानी थी
दर दर भटकी बन बन घूमी
ज़र्रे ज़र्रे की खाक छानी थी
लौटी जब बनवास काट कर
परीक्षा मुझे फिर भी देनी पड़ी
मेरी पवित्रता की परीक्षा लेने को
सारी प्रजा क्यों थी अड़ी
द्रौपदी के रूप में निर्वस्त्र हुई सभा में
सभी के मुंह पर लगे थे ताले
केशों से पकड़कर घसीटा था मुझे
सिर झुकाए बैठे थे भीष्म जैसे हिम्मतवाले
आजकल दुर्योधन और दुशाशन
हर जगह मुहँ बाए खड़े है
कैसे बचेगी आबरू मेरी
सबके मुँह पर ताले जड़े हैं
नारी की अस्मत को सरे बाजार लूटते हैं
घर में सबके मां बहन और बेटियां रहती है
जहां कहीं भी सुंदर नारी नज़र आती है
इनके मुँह से लार टपकने लगती है
मेरे शरीर की संरचना ही ऐसी है
ताकती रहती हैं लोभी नज़रे
कैसे अपने आप को बचाऊं मैं
कंजकेँ मनाने को ढूंढ कर लाते हैं मुझे
पेट में मारते हैं दहेज के लिये जलाते हैं मुझे
कैसे कहूँ मैं अपनी पीड़ा कोई नहीं समझने बाला
लूटने बाले बहुत है यहाँ कोई नहीं बचाने बाला
मेरे काम को कोई नहीं जानता
सुबह से शाम मशीन की तरह चलती हूँ
दुख दर्द चुपचाप सहती हूँ
अंदर ही अंदर सुलगती और जलती हूँ
मेरा वजूद नहीं होगा जग में
तो यह संसार मिट जाएगा
मेरे बिना इस सृष्टि का बेड़ा
पार नहीं हो पायेगा
-रवींद्र कुमार शर्मा
बिलासपुर हिमाचल प्रदेश