संसार की सबसे खूबसूरत संरचना है मानव।सबसे बुद्धिमान, समझदार और चालक भी।मगर हृदय की पवित्रता हमारे भावों, विचारों से संबद्ध होती है।
बस हमें अपने आपको,अपने मन को समझने/समझाने की जरूरत है। खुद से उलझने के बजाय हमें सुलझे मन भाव कर्म से वातावरण, अपने आसपास और अपने मन मस्तिष्क ही नहीं हृदय को भी स्वच्छ और पवित्र रखने की नैतिक और मानवीय जिम्मेदारी को महसूस ही नहीं करना है,बल्कि पूरी तरह आत्मसात भी करना है।
सबसे पहले तो हमें खुद को देखना, समझना, बनना है बिना इस भाव के कि कौन कैसा है,क्या करता है?,कैसे रहता है और उससे उसके जीवन में क्या कुछ होता है।
मन की पवित्रता हमारी सोच, चिंतन, पवित्रता और विचारधारा पर निर्भर है,इसके लिए हमें किसी साबुन सर्फ की जरूरत नहीं है।बस हमें निश्छल भाव और बिना राग द्वैष के मन,वाणी और कर्म से खुद को संबद्ध करना और ग्रहण करना है।हृदय ही नहीं मन वचन और वाणी व्यवहार के प्रति भी सचेत रहना है।शेष की तरफ से विमुख रहना, बचना है।
संत रविदास जी ने कहा भी है,जो मन चंगा,तो कठौती में गंगा।
पूर्ण सत्य भी यही है कि यदि हमारा हृदय पवित्र है, तो हमें किसी तीर्थ की जरूरत ही महसूस नहीं होगी। सभी तीर्थों का प्रभाव, प्रखरता हमें खुद बखुद आनंदित करता रहेगा।तब हमारा हृदय स्वतः बड़ा ही नहीं बहुत बड़ा खजाना लगेगा, महसूस होगा और संतोष के साथ संतुष्टि का पर्याय भी बन जायेगा। हमारी सारी परेशानियां दूर से हमें नमन कर विदा होती रहेंंगी। तब हम आप स्वतः महसूस करेंगे कि पवित्र हृदय उत्तम तीर्थ स्थल के रूप में विकसित होकर बड़ा ही नहीं बहुत बड़े खजाने का भाव प्रस्फुटित कर रहा है और अनंत खुशियां आकाश की फ़िजा में तैरती हुई अभूतपूर्व आनंद की अनुभूति करा रही हैं।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा, उत्तर प्रदेश