कविता की रचना

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अट्टालिका के निर्माण में

पत्थर तोडती वे स्त्रियाँ

हाथ के छालों पर बाँधकर

पुराने वस्त्रों की पट्टियाँ 

             दीवार की छाँव में सुलाती

             अपनी नन्हीं-नन्हीं गुडिया

            उनका दर्द महसूस करती हूँ

             तब मैं कविता लिख लेती हूँ ।।

फुटपाथ पर सिमटी हुई

फटे कंबल में लिपटी जिंदगियां

हर मौसम की मार सहते हुए

बस सिसकती सी जिंदगियां ।

            अपंगता का पहने अभिशाप

           भूख को भी आधा मारकर

            उनकी भूख महसूस करती हूँ

            तब मैं कविता लिख लेती हूँ ।।

रेलगाड़ी में हाथ फैलाकर

गाने गाकर भीख माँगती

अपने बच्चों का पेट पालकर

माँ होने का फर्ज निभाती ।

               लोगों की कुत्सित दृष्टि से

               अपना आँचल भी बचाती

               सोचकर यह सहम जाती हूँ

               तब मैं कविता लिख लेती हूँ ।।

 भवन की कभी नींव खोदकर

कहीं ईंटों को कंधे पर ढोता

माथे से टपकते पसीने को

बाजू से पोंछकर आगे बढता ।

              दीवार की छाँव में खाना खाकर

              वहीं लेटकर कमर सीधी करता

              उसके बारे में जब सोचती हूँ

              तब मैं कविता लिख लेती हूँ ।।

दुनिया यह दुःखों का मेला

दर्द की बस्ती में मनअकेला

जिधर भी अपनी दृष्टि घूमती

झंझावातों का व्यूह ही देखती ।

                अन्तर्मन से वेदना उमडकर

                भावों के सागर में बह जाती

                शब्दों को मैं ढाल बना लेती हूँ

               तब मैं कविता लिख लेती हूँ  ।।

                                            -अलका शर्मा

शामली, उत्तर प्रदेश 

 

 

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