हे लेखनी!
तू ही साथ रह!
हे लेखनी!
तू ही साथ रह!
कितने रहस्यों के परत!
तू खोल देती!
कितने रहस्यों को!
निरंतर जन्म देती!
हे लेखनी!
तू साथ रह!
जहाँ भी ठिठक कर! रुक जाती!
लिख जाती है तू अमिट!
जहाँ पर तू दृष्टि को है साध देती!
बदल देती है जगत का दृष्टिकोण!
हे लेखनी!
तू साथ रह!
थोथा था!
चीखता! चित्कार करता!
यह मन!अनमना सा!
घूमता था यहां वहां!
रेंगता था!
पर!
खींच लिया तूने!
अपने आगोश मे!
हे!लेखनी!
हाँ,
खींच लिया तूने!
अपने परिपेक्ष मे!
देख फिर!
लिखने लगा है वही!
मन बुनने लगा है!
एक नव चेतन!
लेखनी!
तूने रच दिया!
आज एक नवीन पन्ना!
बनेगा जो! कल का शिलालेख!निश्चित!
तूने रच दिया!
आज एक नवीन पन्ना!
बनेगा जो! कल का शिलालेख!निश्चित!
हे लेखनी!
तू साथ रह!
बस चलती रह!
यूँ ही निरंतर!
यूँ ही निरंतर!
नव दिवस!
तुम रोज रच दे!
वर्ष को उत्सव बना! उत्सर्ग कर दे!
हे! लेखनी!
तू साथ रह!
-डॉ० सत्यप्रकाश पाण्डेय
वैज्ञानिक, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी, उत्तर प्रदेश