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सृजन समूह शामली, उत्तर प्रदेश

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गुरुवार, 11 मार्च 2021

होली

 

दिन वो भी क्या थे पहले,

         जब होली आ जाती थी।

ऐसा लगता था चहुँदिस ,

          ख़ुशियाँ छा जाती थी।।

 

करते थे साफ़-सफ़ाई,

            पूरे घर की तन-मन से।

बनती थी गुजिया सारी,

           खाते थे दो-दो करके।।

 

ज़िद करके अम्मा से हम,

              पिचकारी ले आते थे।

डिब्बों से भरकर रंग को,

           उन सबको डरवाते थे।।

 

फिर आते थे सब मिलने,

            खाते थे पान मसाला ।

चाहे कट जाये जिह्वा,

           या मुँह में होवे छाला।।

 

वो रंग-बिरंगी होरी,

           जाने फिर कब आएगी।

बिरहा,कजरी की ढपकी,

          अब लगता तरसायेगी।।

 

ना जाने कहाँ गए वो,

              आपसी प्रेम के रिश्ते।

वो छुपके-छुपके चलते,

         जो सदा साथ थे चलते।।

 

आओ मिलकर के फिर से,

            हुढदंग मचा ले मन भर।

ख़ुशियाँ समेट ले सारी,

       हर्षित हो जायें छन- भर।।

 

ऐसा कुछ कर दो प्रभुवर ,

             रिश्तों में सन्मति जागे।

यदि कहीं कुमति हो व्यापित,

         तन-मन से आतुर भागे।।

प्रो. सत्येंद्र मोहन सिंह

महा० ज्योतिबाफुले रोहिलखण्ड विश्वविद्यालय

बरेली, उत्तर प्रदेश

 

 

 

 

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