दिन वो भी क्या थे पहले,
जब होली आ जाती थी।
ऐसा लगता था चहुँदिस ,
ख़ुशियाँ छा जाती थी।।
करते थे साफ़-सफ़ाई,
पूरे घर की तन-मन से।
बनती थी गुजिया सारी,
खाते थे दो-दो करके।।
ज़िद करके अम्मा से हम,
पिचकारी ले आते थे।
डिब्बों से भरकर रंग को,
उन सबको डरवाते थे।।
फिर आते थे सब मिलने,
खाते थे पान मसाला ।
चाहे कट जाये जिह्वा,
या मुँह में होवे छाला।।
वो रंग-बिरंगी होरी,
जाने फिर कब आएगी।
बिरहा,कजरी की ढपकी,
अब लगता तरसायेगी।।
ना जाने कहाँ गए वो,
आपसी प्रेम के रिश्ते।
वो छुपके-छुपके चलते,
जो सदा साथ थे चलते।।
आओ मिलकर के फिर से,
हुढदंग मचा ले मन भर।
ख़ुशियाँ समेट ले सारी,
हर्षित हो जायें छन- भर।।
ऐसा कुछ कर दो प्रभुवर ,
रिश्तों में सन्मति जागे।
यदि कहीं कुमति हो व्यापित,
तन-मन से आतुर भागे।।
प्रो. सत्येंद्र मोहन सिंह
महा० ज्योतिबाफुले रोहिलखण्ड विश्वविद्यालय
बरेली, उत्तर प्रदेश