दीया और बाती

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दिये से चिकनाई जब ख़त्म हो जाती है,

दिये में बाती जलकर तब बुझ जाती है,

 

          फ़िर रौशनी भी साथ उनका छोड़ जाती है,

          अपनी मृत देह बाती दिये में छोड़ जाती है,

 

इंसान को जला कर उसका अंत होता है

किंतु बाती तो बुझ कर मृत्यु पा जाती है,

 

          दोनों मिलकर प्यार की लौ को जलाते हैं,

          और केवल दूसरों के लिए ही जिये जाते हैं,

 

फिर भी अब वह तिरस्कृत किए जाते हैं,

गुजरे ज़माने किसी को याद कहां आते हैं,

 

          वर्षों तक दिये का अंधकार को मिटाना,

          महल हो या हो कुटिया प्रकाश फैलाना,

 

किसी को भी अब याद कहां रह पाता है,

वक़्त के साथ ही सब कुछ बदल जाता है,

 

          हालात बदलते ही जरूरतें बदल जाती हैं

          जरूरतों के लिये नीयत भी बदल जाती है।

                                                -रत्ना पाण्डेय

वडोदरा, गुजरात

 

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