जो बच्चे महकाते हैं ,
कभी अबोला रहकर हम-भी ,
सजा देते थे बच्चों को ,
कभी कान को जुम्बिश देते ,
कभी पलक झपकाते थे,
कभी कहानी और कविता में ,
गहरी सीख दे जाते थे ,
अपने और पराये के भी ,
भेद नहीं समझाते थे ,
सच और झूठ की परिभाषा के ,
भाव उन्हें समझाते थे ,
ये कर लोगे इतना देंगे ,
मोह नहीं करवाते थे ,
सीधे शब्दों की भाषा में ,
जीवन का पाठ पढ़ाते थे ,
अपने मन की कामनाओं की,
भेंट नहीं चढ़वाते थे ,
सच्चे सीधे-साधे मन को ,
बस खुशियां दे जाते थे ,
आज नहीं कोई डर है हमको ,
बच्चों के इस जीवन में ,
बस, आंगन में खुशियां हैं ,
और खुशियों में ही आंगन है ।
-कार्तिकेय त्रिपाठी 'राम'
इंदौर, मध्यप्रदेश