शरद का उत्तरार्ध चरम पर है, जिनकी सुनहरी धूप और रात्रि की श्याम शीतलहर हमारी देह को गुलाबी लाली प्रदान करती है। बदलते दिन, मौसम व संसार में एक प्रवृत्ति कदापि नहीं बदलती है,और वे है. पढ़ने वालों की पाठन -पिपासा। संसार भर के साहित्य को अपने चित में सजाने की ख्वाहिश लिए, यह उस एकांत पथ पर निरंतर चल रहे हैं जहां आज के व्यस्त दौर में कोई जाना पसंद नहीं करता। आज का अंध दौड़ से भरा दौर मात्र एक छोटी दुनिया तक सिमट कर रह गया है, किंतु हाल ही मे बीते विपदा के वर्ष ने बहुत कुछ सिखाया। जहां परिवार के सदस्य अपनों के करीब आए वहीं गौरवशाली बीते क्षणों की मधुरता यादों से जीवन को पुनः सजाने के प्रयास भी किए गए । किंतु नकारात्मकता इस महामारी के समय भी लोगों पर छाई रहीं । लोगों के महा समूह में एक छोटे अंश ने इस विरान काल मे पुनः बचपन की ओर लौट अपनी पुरानी अलमीरा का रुख किया। टूटे खिलौने, पुराने कपड़ों और चित्रों के पुलिंदों के साथ धूल भरी अलमारी में हमारे बचपन का ब्यौरा लिए मानो वीरानों सनी हमारी पुरानी किताबें शायद इसी क्षण का इंतजार कर रही थी। आह!कितने जतन से यह व्यवस्थित सजी व माटी से सनी किताबें बचपन की यादों के ब्योरों के अतिरिक्त हमारे बढ़ते जीवन का भी प्रतीक चिन्ह सी प्रतीत होती है।
हमारे बाल मन को प्रदर्शित करने वाली नंदन, बालहंस व चंदामामा जैसी पत्रिकाओं के खस्ताहाल अंक जिनके परी कथा,चित्र कथा व लोक कथा विशेषांकों का हमें ग्रीष्म मे बेसब्री से इंतजार रहता। बढ़ते जीवन में बाल साहित्य ने करवट ली और हंस,कादंबिनी व अहा!जिंदगी ने हमारे जीवन में दस्तक दी ।संभवत अधिकतर साहित्य प्रेमियों का साहित्य परिचय प्रेमचंद की ईदगाह, बूढ़ी काकी, नमक का दरोगा आदि कहानियों से हुआ।
इन पत्रिकाओं के पुलिंदों पर हमारी हिंदी के उस जमाने के कालजयी उपन्यास मेंलें पन्नो से सृजित रहते हैं। प्रेमचंद, चतुरसेन शास्त्री, कमलेश्वर,भीष्म साहनी, रेणु जी और यशपाल के उपन्यास ज्यादातर पाठकों की प्रारंभिक पसंद रहे हैं। इनमें भारतीय अतीत के वैभवपूर्ण वर्णन, वर्तमान की दुर्दशा और भविष्य की आकांक्षा छिपी रहती है। हमारे मस्तक विचारों कों विकसित करने वाले इन महा ग्रंथों पर हमारी सर्वप्रिय पुस्तक रत्न शान से रखी होती जो हमारे प्रिय जनों से प्राप्त हमारी सर्वप्रिय पूंजी होती। शायद ही वह क्षण आया हो जब हमारी रात के प्रारंभिक क्षण इन पर दृष्टि डाले बगैर बीते। खैर अब वे क्षण कहा?
इस माह आपदा ने हमारे बचपन को हमें लौटा दिया ।पुरानी अलमारी के कपाटो में बंद पुस्तकों को ज्यों ही खोला हमारे नेत्रों के सामने हमारा बचपन मानो नाचने लगा। यहीं वह पत्रिका थी जिसके लिए हर माह दुकानदार का सर खाती या खाता ।यही वह उपन्यास है, जिसने देश की सेवा के लिए मुझे प्रेरित किया,और हां यही तो वह उपन्यास है जिसके लिए अम्मा से रोकर पैसे लेने पड़े आदि हास्य से भरे वाक्यों से हमारी देह पुनः गुदगुदाने लगती। पढ़ाई के बढ़ते सौपान और महाविद्यालयी दुनिया हमारे जीवन में मानो अतिरिक्त भार लाई । हालांकि कॉलेज की लाइब्रेरी में हमारी पसंदीदा किताबें भी थी पर अब मन विस्तृत ज्ञान के गोते लगाने के लिए महा ग्रंथो की खोज करता इतिहास की टिकाए,अर्थव्यवस्था के सिद्धांत,राजनीति के आयाम और विज्ञान के तत्व बोध से सृजत महाविद्यालयी पुस्तके हमें नए संसार से परिचित कराती।व्यस्कता के बढ़ते क्रम में हमने शीघ्र ही हमारे साहित्य की उपेक्षा करना आरंभ कर दी ।बदलते समय के साथ हमने हमारा रुख मौलिक लक्ष्यों की ओर कर दिया,किंतु इस महामारी के काल में हमने हमारी पुरानी अलमारियों में बंद किताबघर को पुनः सजाया। इस अनमोल खजाने ने मुख मंडल पर अद्भुत मुस्कान भर दी ।एक बार पुनः हमने बुक स्टालो को खगाला, रोचक उपन्यासों की तलाश में बचपन की भांति मित्रों से संपर्क किया और पूर्णबंदी खुलने तक हमने हमारे चेतना द्वारों को पुनः खोला।
यहीं असर है कि शरद कि शीत लहर से महकती शाम रात्रियों में, चंद्रमा की छन कर आती शितल प्रकाश रेखाओं में व नन्ही लाइट की धीमी रोशनी में हम बड़ी उत्सुकता से महा लेखकों के कलम से निकली जादुई सृजनता को चित्त पटल पर संजो रहे हैं। हिंदी की कालजयी यात्राओं का बोध कराने वाली रचनाएं हमारे पुनः निर्मित किताब घर में प्रवेश करने लगी है।अब यही आशा है कि शीघ्र ही यह यात्रा तेज होकर पुनः पुराना माहौल अवश्य बनाएगी।
- सुरेंद्र सिंह रावत
अजमेर, राजस्थान