हमने कोरोना काल में देखा कि रोजगार की तलाश में शहरों में आये अधिकतर
कामगार अपने गांव लौट गये। उनके अन्दर कोरोना का खौफ इस कदर व्याप्त हो गया था कि
वे शहरों में एक पल रुकना नहीं चाह रहे थे। वह किसी भी तरह अपने गांव पहुंचना
चाहते थे। जिस तरह से भी बन पड़ा वे उस तरह अपने
घरों के लिए निकल पड़े। सड़कों पर अपने घरों की तरफ जाने वाले कामगारों का तांता
लग गया था। देश के इतिहास में यह अब तक का सबसे बड़ा पलायन था।
इस पलायन की सबसे बड़ी वजह शहरों में रह रहे लोगों की अपनी मजबूरियों से
ज्यादा संकीर्ण मानसिकता। देश के मुखिया के बार
बार आग्रह के बावजूद मकान मालिकों ने घर के किराये को लेकर काफी ज्यादतियों कीं।
आवास की अनुपलब्धता तथा मजदूर वर्ग के पास पैसे का अभाव पलायन का बड़ा कारण बना। जिन शहरी दुकानदारों से लोग उधार राशन लेते
थे उन्होंने इस संकट की घड़ी में उधार राशन देने से मना कर दिया। जिन लोगों के यहां वे काम करते थे उन लोगों ने भी ज्यादा दिन तक भोजन पानी
की व्यवस्था कर सकने में असमर्थता जताई।
जब कामगारों के ऊपर दो जून की रोटी का संकट खड़ा हुआ तो संभ्रांत और
प्रबुद्ध कहलाने वाले शहरी तबके ने अपने हाथ खींच लिए। लोगों ने यह नहीं सोचा कि
यह संकट अस्थायी है। कुछ दिनों में यह संकट समाप्त हो जायेगा। काफी कामगारों को एक जगह काम करते हुए दस दस पन्द्रह साल हो गए थे। वे काम
करने वालों के यहां परिवार के सदस्य जैसा हो गये थे। फिर भी संकट खड़ा हो जाने पर
लोगों ने साथ नहीं दिया।
शहरों की एक
बड़ी आबादी तो काम वाली बाई के आंचल तले जवान हुई है। उनके हाथ के साफ किए हुए
बर्तन और बनाये हुए खाने शहरी आबादी के जीवन में घुल मिल गए हैं। अधिकांश बच्चे
आया की छाया में बड़े हुए हैं। बच्चों में इन आया कही जाने वाली महिलाओं से अपनी
मां से ज्यादा भावनात्मक लगाव है। क्योंकि इनकी कामकाजी मांए तो दिन भर इन बच्चों
से दूर रहती है। सही मायने में मां यशोदा बनकर इन शहरी बच्चों की देखभाल तो यही
गावों से आयी हुई और आया कही जाने वाली महिलाएं ही करती हैं।गांव से आये लोग शहरों
में अपनी कार्यकुशलता के अनुसार तरह-तरह के काम करते हैं। जो कि शहरी दिनचर्या का
एक हिस्सा हैं। शहरों में चलने वाले कार्यालय, माल, फैक्ट्रियां सब प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से गांव से आए कामगार वर्ग के
भरोसे ही चलते हैं। शहरी अभिजात्य वर्ग इन्ही कामगारों के भरोसे अपने बच्चों,
पेड़ पौधों से लेकर हर काम से निश्चिंत होकर काम पर निकल जाता है।
कोरोना काल से सीख लेते हुए आज आवश्यकता
इस बात की है कि शहरों और गांवों का बराबर विकास किया जाय ताकि कभी दुबारा ऐसी
आपदा आने पर पिछले वर्ष जैसी अमानवीय स्थितियां न उत्पन्न हों। अब तक सरकारों ने शहरों के विकास को ज्यादा तवज्जो दिया है। इसलिए गांव के लोगों को काम की तलाश में शहरों की तरफ आना पड़ता हैं।
जिसके कारण शहरों के ऊपर जनसंख्या का भार बढ़ता जा रहा है। हर मौसम में बिजली पानी
की समस्या खड़ी हो जाती है।
शहरों से दिल दहला देने वाली समस्याओं से दो चार होते जो कामगार अपने गांव
पहुंचे थे उनमें से ज्यादातर कामगार वापस शहर नहीं जाना चाहते थे। लेकिन गांवों
में आय का साधन न होने के कारण वे ज्यादा दिन तक गांव में रूक नहीं पाये। पेट की आग उन्हें फिर शहरों की तरफ खींचकर ले जा रही है।
उस समय राज्य सरकारें कह रही थीं कि - हम अपने प्रदेशों में रोजगार के अवसर उत्पन्न
करेंगे जिससे कि हमारे राज्य की मानव शक्ति को दूसरे राज्य में न जाना पड़े। हम अपने प्रदेश में दूसरे प्रदेशों से लौट कर आ रहे कामगारों की सूची बना
रहे हैं। हम उन्हें उनकी दक्षता के अनुसार काम उपलब्ध करवायेंगे।
यदि राज्य सरकारें ऐसा करने के लिए अपनी बातों पर अमल करती हैं तो दूसरे
राज्य के शहरों की ओर पलायन रूकेगा। यदि लोगों को
गांव के नजदीक काम मिले तो ज्यादा अच्छा होगा। आज
यातायात के साधन और सड़कें लगभग हर गांव के आसपास मौजूद हैं। किसी भी रोजगार के
लिए मानव श्रम, बिजली, यातायात के साधन
आवश्यक होते हैं और यह सभी गांवों में मौजूद हैं।
यदि सरकार गांव के क्षेत्र में वहां की खेती में पैदा होने वाली फसलों
जैसे आलू की चिप्स, टमाटर से टोमैटो सॉस, मीठी चटनी, गेहूं की आटा मिल/चिउड़ा मिल/चिउड़ा
नमकीन, चावल मिल, भुना हुआ चना की
पैकेजिंग, उरद और मूंग का नमकीन, मकई
का लावा, मसालों की पिसाई एवं पैकेजिंग आदि से संबंधित कुटीर
उद्योग के कारखाने लगाती है तो किसान, कामगार तथा सरकार
तीनों के लिए बहुत ही अच्छा होगा।
सरकार/उद्योगपति बिभिन्न माध्यमों/बिचौलियों से गांवों से ही फसलों की उपज
को सस्ते दामों में खरीद कर शहरों में ले जाते हैं। वहां पर इन फसलों से बिभिन्न
तरह के खाद्य बनाकर मंहगे दामों में बेचते हैं। इसमें गांवों से शहरों की ढुलाई,
मंडी शुल्क, बिचौलियों का कमीशन शामिल होने के
कारण बस्तुएं लागत से बहुत ज्यादा दाम परबिकती है। इसी कारण देश में मंहगाई
बेतरतीब बढ़ी है। यदि सरकार गांव में ही इनका उत्पादन करें तो मंहगाई भी कम हो
जायेगी।
गांव से पलायन को रोकने के लिए कई सरकारी योजनाओं की घोषणा हुई है लेकिन
उनके सिरे चढ़कर गरीब तक पहुंचने में शंका है। अभी महामारी से सरकारें थोड़ा
परेशान हैं इसलिए बड़ी बड़ी बातें कर रही हैं। समय बीतने के साथ गांव जस के तस रह
जायेंगे। सरकार की बहुत सारी योजनाएं गांव तक पहुंचते पहुंचते हांफने लगती हैं।
गांव के विकास में सबसे बड़ी बाधा
कमीशनखोरी है। योजनाओं के पैसे का एक बड़ा भाग बिचौलियों और ठेकेदारों के बीच बंट
जाता है। इसीलिए गांवों में बनी सड़कें एक बरसात नहीं झेल पातीं, गांवों में शौचालय, नालियों की निर्माण सामग्री को
देखकर सिर पीटने को दिल करता है, आंगनबाड़ी में मिलने वाले
पुष्टाहार, प्रसव के बाद मिलने वाली राशि में कमीशनखोरी का
हाल किसी से छुपा नहीं है, सार्वजनिक वितरण प्रणाली में
भ्रष्टाचार के किस्सों की लम्बी फेहरिस्त है। कितनी ऐसी योजनाएं हैं जिनकी जानकारी
सम्बन्धित विभाग और उनसे जुड़े लोगों तक ही रह जाती है।
गांवों के विकास के लिए यदि सरकारों की मंशा साफ है तो पहले सरकारी
योजनाओं में कमीशनखोरी को रोकना होगा और गुणवत्ता के लिए जवाबदेही तय करनी होगी।
सभी जनप्रतिनिधियों को चुनाव से पहले तथा कर्मचारियों, ठेकेदार
आदि को नौकरी मिलने के समय/रजिस्ट्रेशन के समय अपनी तथा अपने पूरे परिवार की चल,
अचल सम्पत्ति की घोषणा को अनिवार्य
बनाना होगा। जिससे कि आवश्यकता महसूस होने या किसी के द्वारा शिकायत मिलने पर
आसानी से जांच की जा सके।
यदि सरकार सही मन से पलायन रोकना चाहती है गांवों और शहरों का बराबर विकास
करना होगा ताकि भविष्य में पिछले वर्ष की तरह समस्याएं न खड़ी हो और 21वीं सदी के
भारत में किसी गरीब को पैदल चलते चलते प्राण न गंवाने पड़े, महिलाओं
को खुली सड़कों पर प्रसव न हों और किसी मजबूर को बैल की जगह बैलगाड़ी में न जुतना
पड़े। देश के मुखिया के नारे "सबका साथ, सबका
विकास" की अवधारणा तभी पूरी होगी जब विकास की बाट जोहते गांव में विकास की बयार रफ्तार से बहेगी।
हरीराम यादव
अयोध्या, उ०प्र०