( किन्नरों को समर्पित )
आखिर गलती मुझसे क्या हुई
जिस रीति से तुम अवतरित हुए
उस रीति से मैं भी जन्मा हूँ।
बंजर भले तुम समझो मुझे
पर हृदय मेरा भी तुम सा है
इसमें भी प्रेम पनपता है
इसमें भी दर्द उमड़ता है।
तुम जैसे देखे बहुत हमने भी
वंश जिनका भी तो नहीं चलता है।
क्या यही कसौटी जीवन की?
क्या सार यही मानवीयता का है?
कद काठी भी तुम सी ही है
क्या हुआ? कुछ अंग जो भिन्न सा है?
पैदा करने वाले ने ना जब भेद किया
फिर मेरा होना तुम्हे क्यूं खलता है?
तुम लेते सांस, मैं भी लेता हूँ
तुम खाते जो मैं भी खाता हूँ
तुम रहते धरती पर मैं भी रहता हूँ
फिर आखिर क्यूं भेद ये दिल का है?
खिलने दो मुझे भी, जीने दो
इतना अधिकार तो मेरा है
आकाश मुझे भी छूने दो
जीवन को मुझे भी जीने दो।
- डॉ० दीपा 'दीप'
असिस्टेंट प्रोफेसर
दिल्ली विश्वविद्यालय