वक़्त के साथ इंसान अभिनय से ज्यादा जुड़ता जाता है
वो जो बचपन की मासूमियत से भरी सच्चाई थी,
खोने लगती है
अपनी हसीं में छुपाते हैं दर्द को
आंख जब रोने लगती है
दर्द , चुभन,अपमान को हम
मौन का चोला पहनाने लगते हैं
और ऐसा कर पाने पे हम
दुनियां को कितने सयाने लगते हैं
क्यूं सच्चाई,बेवाकी,भोलेपन से
जमाने को इतना ऐतराज़ है
क्यूं अभिनय, वो झूठ का मुखौटा
लगता सबको इतना ख़ास है
क्यूं इसे लोग समझते हैं
समझदारी की निशानी
जबकि ये तो जीवन में
झूठ का आगाज़ है
निरूपा कुमारी
कोलकाता, प०बंगाल