जो सगे भाई थे वो दुश्मन से चेहरे हो गये
गांव की बदहाल हालत देखकर ऐसा लगा
सूने घर गलियों के लगता कान बहरे हो गए
पोखरे की सीढ़ियों पर बैठकेंदिखती नहीं
बाग़ बगिया में भी सन्नाटे के पहरे हो गए
चार पैसे पाने को परदेस जाने की ललक
नौजवां लड़कों के सपने ही सुनहरे हो गए
गांव की चौपाल पर अब बतकही कोई नहीं
कौन सुनता है किसी की सब बड़हरे हो गए
आदमी भी गांव के तो शह्र की तरहा ही अब
काम से ही काम रखते और जरहरे हो गए
पाठशाला से कहां आवाज आती दूर तक
रटते थे हम खूब अब सपने ककहरे हो गए
आलोक रंजन इंदौरी