प्रातः की दीप्त सूर्य रश्मियो से संपूर्ण चित्तौड़ प्रकाश में हो गया, दुर्ग चित्तौड़गढ़ की प्राचीरो की सुनहरी छटा व सावन की हरिता आभा ओढ़े उपवन और जलकुंडों की शोभा अवर्णनीय थी, किंतु सब व्यर्थ, मेवाड़ साम्राज्य बिखर चुका था। हाय, अब वह वैभव वह साम्राज्य कहां ? खानवा के मैदान में चित्तौड़ के मेवाड़ी महाराणा संग्राम सिंह ने अपनी खड़ग के जोहर से मुगल सरदार बाबर को वशीभूत कर दिया. किंतु अंततः अपने ही सामंतों के विश्वासघात से पराजित हुआ और विश्वासपात्र के जहर देने से मारा गया और इसी के साथ मेवाड़ी शौर्य का तीव्रता से पतन हुआ। अब मेवाड़ का शासक विक्रमादित्य था जो सांगा का पुत्र था किन्तु इसे शासन से अधिक राग रागिनी से प्रेम था,। इस दुर्दशा से चित्तौड़ महारानी कर्मावती को सबसे अधिक दुख होता, पर कर क्या सकती थी, पुत्र को कहती. सुनाती.मनाती पर उसके कान पर जू तक न रेंगती। खैर मेवाड़ की यह सुबह विशेष थी, ऐसा लगता कोई देवांगना का स्वर वातावरण में घुल गया हो। यह कर्णप्रिय आवाज चित्तौड़ के राज प्रसाद से कुछ दूरी पर स्थित प्राचीर के निकट कुंभन श्याम मंदिर की पताका से आती जान पड़ती। ऐसा लगता पताका से दिव्य संगीत -लहरिया निकल रही हो। आह !अदभुद मिठास, यह किसी देवी का दिव्य कंठ जान पड़ता, गीत वातावरण मे गूंज रहा था...............
पायो जी म्हे तो राम रतन धन पायो
वस्तु अमोलक दी म्हारे सदगुरु
दिन दिन बढ़त सवायो
पायो जी पायो राम रत्न धन पायो........
यह दिवंगत महाराणा के जेष्ठ पुत्र भोजराज की अर्धांगिनी. मीरा, थी जो अपने वैधव्य का श्वेत रंग भक्ति के सप्तरंगो के में दबा देती हुई सी प्रतीत होती। मीरा गायन में मग्न थे कि पीछे से किसी दासी की आवाज गूंजी..
.. राजराजेश्वरी मेवाड़ महारानी कर्मावती सा पधार रहीं है,,
मीरा मग्नता से गाती रही। पीछे बैठे सारे भक्तगण हाथ जोड़ खड़े हो गए, पर मीरा मग्नता से प्रभु हरि का चरण गान कर रही थी। पीछे सीढ़ियां चढ़कर महारानी कर्मावती प्रविष्ट हुई। वह चेहरा जिसे देख राजलक्ष्मी सम्मोहित होती थी वह अब शुष्कता के आवरण से ढका था। श्वेतावरण और शुभ्र मौक्तिक आभरण ही मात्र चितोड़ राजमाता का वैधव्य दिखा रहे थे, किंतु वास्तव में अभी महारानी साक्षत भवानी का अवतार जान पड़ती, चेहरे पर मढ़ा राजपूती गौरव कौन मिटा सकता है?
मीरा का भक्ति गायन समाप्त हुआ उसने धीरे से नेत्र खोले और अपने गिरधर गोपाल की मुस्कान युक्त
मूरत के चरणों में झुका दिए। फिर धीरे से आरती की थाली ले, पीछे मुड़ी तो कर्मावती को देख चकित रह गई, उसने शीघ्र ही है अपने पल्लू को लंबे घूंघट का सिरका दिया ओर महारानी के चरणों की रज ली। महारानी कर्मावती ने सर पर हाथ रख शुष्क मुस्कान बिखेर दी। अब तक दसियों से प्रसाद ग्रहण कर सभी भक्तगण जा चुके थे। रानी ने दासीयों को भी चले जाने का इशारा किया, शीघ्र ही मंदिर में मात्र महारानी, मीरा और मीरा के गिरधर गोपाल रह गए।
मीरा सकपका कर बोली -कहिये माँ सा हुक्म, आज प्रातः इधर ?
कर्मावती- मन विचलित है मीरा, यह दुर्दशा आह ! विनाश दिखता है मुझे, क्या करूं अब तो हृदय के रुख संग बहती जाती हूं।
मीरा - मेवाड़ी छोरी अभी जीवित है हुकुम,,
कर्मावती - व्यंग्य ना करो मीरा, क्या तुमसे दशा छिपी है? गुजरात का सुल्तान घात लगाए बैठा है।
मीरा - तो क्या अब सिसोदयी तलवारे जंग खाने लगी है माँ सा,,।
कर्मावती, हंसकर- वास्तव में मीरा यह कहती है? जिसकी गायन में अहिंसा झलकती है।
मीरा - प्रतिरक्षा के लिए संघर्ष हिंसा नहीं है हुकुम, और युद्ध में तो मेरे गिरधर गोपाल ने भी शस्त्र उठा लिए थे।
कर्मावती ठंडी आह भरकर- खेर मेरा यहां आने का उद्देश्य अन्य है मीरा, तुम्हें अब इस गायन को विराम देना होगा, राजवधू होकर यह गायन जग- हास्य का कारण बनता जा रहा है। सिंध से विंध्य तक तुम्हारा यह गायन गूंजता सा जान पड़ता है,,।
मीरा, स्तब्धः सी - तो क्या अब एक अबला का भक्ति- भाव छीनकर मेवाड़ी अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा करेंगे?
कर्मावती- उपहास नहीं मीरा ! स्वयं का हृदय छलनी होता है यह कहकर, किंतु क्या करूं एक स्त्री हृदय के साथ महामाता का दायित्व भी है मुझ पर।
मीरा कर्मावती के विपरीत खड़ी होकर गेरुए चीवर के आवरण में प्रभु श्री कृष्ण की मूरत तकने लग जाती है, पीछे खड़ी महारानी कर्मावती पुत्रवधू की यह हालत देख एक बार तो छाती पीट कर रोना चाहती, हाय जो देह स्वर्ण के आभूषणों से भी मैली होती जान पड़ती थी आज वह मात्र सूत के साधारण चीवर से ढकी है, इससे बड़ा विडंबना क्या होगा। महारानी मीरा को कमजोर नहीं करना चाहती थी, उसने अपने उमड़ते हुए अश्रु प्रवाह को पल्लू से दबा दिया।
मीरा कुछ देर शांत भाव से सोचती है फिर बिना पीछे देखे बोलती है- आपकी क्या आज्ञा है हुकम,,
कर्मावती तटस्थता से बोली- कल से चित्तौड़ के दुर्ग में यह गायन न गूंजेगा।
मीरा - जो आज्ञा हुकुम की,,।
कर्मावती के नेत्र विस्मय से विस्तृत हो गए , जो मीरा एक पल भी श्रीकृष्ण के बगैर सोच भी नहीं सकती थी वह उनके प्रशस्ति का गायन बंद कर देगी, वास्तव में यह संसार का सर्व प्रमुख असत्य जान पड़ता।
कर्मावती - वचन देती हो मीरा? क्षत्राणी का वचन जानती हो ना ?
मीरा - अच्छी तरह से माँ सा हुकम, वचन देती हूं कि चित्तौड़ के दुर्ग में कल से यह गायन न गूंजेगा। यदि मातृभूमि
की प्रतिष्ठा इससे गिरती है तो यह त्याग मुझे स्वीकार है।
कर्मावती सजल नेत्रों से मीरा से लिपट गई, कुछ देर तक दोनों हृदय भर रोइ, फिर बड़ी कठिनाई से दोनों एक दूसरे से अलग हुई व आंसू पोछ कर्मावती ने मीरा से विदा ली और निशब्द अपराधिन सी श्री कृष्ण को हाथ जोड़ सीढ़िया उतरते हुई मीरा से पुनः बोली,, ध्यान रखना ऐ क्षत्राणी अपना वचन,,
मीरा सिर्फ शांति से मुस्कुरा दी।
रात्रि के बाद अखंड सत्य सा प्रभात का तारा उदित हुआ, महारानी कर्मावती रात्रि के अंतिम प्रहर से ही सतर्कता से कान लगाए कुम्भनश्याम मंदिर की ओर तक रही थी । अब उसके चेहरे पर संतोष था, मीरा का वह सुमधुर गायन आज दुर्ग मे न गुंजा। वह आश्वासन से नीच उतरने ही वाली थी कि मीरा का मंद गायन वातावरण मे गूंज उठा, कर्मावती स्तंब्ध सी रह गई, किन्तु यह क्या यह गहराती आवाज़ तो कहीं और से आती जान पड़ रही थी। कर्मावती शीघ्रता से प्रसाद के ऊपर चढ़ी तो उसने देखा, निचली घाटी वाले कच्चे रास्ते से मीरा नगर के बाहर जाते मार्ग पर मंद गति से गाती, चलती जा रही थी. प्रभात की शीतल वायु के प्रवाह सँग उसके घन केश चीवर सँग घुंघट से बाहर निकल लहरा रहे थे। क्षत्राणी ने वचन पूरा किया. आज गायन दुर्ग मे नहीं गूंज रहा था, किन्तु साथ ही एक त्यागी भगतन अपने हरि का स्मरण कर अपना भक्त कर्म भी पूरा कर रही थी। कर्मावती सूर्य की रेखाओ सी जाती मीरा को सजल नेत्रों से देख रही थी,। वातावरण मे गूंज रहा था........
. पायो जी म्हे तो राम रत्न धन पायो,,
-सुरेन्द्र सिंह रावत