अपना गाँव हमें बुलाता है

सृजन


अपना गाँव हमें बुलाता है
भोर भई किसान खेतों में जाकर
         तारों की छांव में हल चलाता है
        श्रम श्रान्त तन पर नहीं क्लांत मन
                 स्नेह स्थावर उमडते सदैव हृदय में
                 बैर भावना रहे मन में ना कोई,
                       बाँधे सबको ही अपने नेहबंधन में
                       ऐसा अपना गाँव हमें बुलाता है।।

उपभोक्तवाद की संस्कृति के पीछे
देखो मानव सरपट कैसा दौड़ रहा
        विस्थापित होकर पडा हुआ नगर में
        अनियमित, अस्थिर जीवन जी रहा
             खोकर नैतिकता के जीवन मूल्य
             अलग ही दुनिया में घूम रहा
                     संतोषी सुखी जीवन जीने हेतु
                     ऐसा अपना गाँव हमें बुलाता है।।

 भौतिकवाद का चढा मुखौटा
तोड़ रहे खुदअपनों से ही नाता
       मिल नहीं पाता चैन तनिक भी
       पर बल वैभव पा,मद में चूर हो जाता
              अंधानुकरण के दुष्चक्र में फंसता
              इंटरनेट पर अनमोल जीवन बिताता
                   रिश्तों का महत्व सिखाने को
                   ऐसा अपना गाँव हमें बुलाता है।।

इस दुनिया की चकाचौंध में
मन तो बहुत ही उदास हुआ
      संतुष्टि दे जो विचलित मन को
      कोई न ऐसा विचार पास मिला
             जब घोर निराशा,
              ना कोई आशा
                    जब शहर हमें ठुकराता है
                    ऐसा तब गाँव हमें बुलाता है।।

अपने गाँव की चौपालें छोडी
छोड़ दिए सब अपने घर आँगन
      नहीं वृक्षों की शीतल छाया
      ना गऊओं का दूध स्वादिष्ट
           जब भारी विपदा पडी जगत पर
           छोड़ चले तब शहरी जीवन
                 अपने अंक में भर खुशियां देने को
                 ऐसा अपना गाँव हमें बुलाता है।।

अलका शर्मा,
क०उ०प्रा०वि०भूरा
 कैराना, शामली



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