प्रकृति ईश्वर प्रदत्त एक अनुपम एवं अतुलनीय उपहार है । एक ऐसा रचनाकार जिसने व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध रूप में ऐसी रचना कि जिसकी चित्रकारी को सोचकर मन आल्हादित ,रोमांचित तो होता ही है साथ ही इस की अनंतता को भाप भी नहीं पाता। प्रकृति ने मनुष्य के हाथ में मानो पूरी प्राकृतिक संचालन के लिए दे दी और यह मानव इतना स्वार्थी हो गया कि इसमें प्रकृति का अपने स्वार्थ के लिए अप्रत्याशित दोहन करना शुरू कर दिया । प्राचीन समय में समस्त ऋषि मुनि प्रकृति को ईश्वर का रूप मानकर पूजा करने का उपदेश देते थे और प्रकृति को परोपकारी बताकर मानव परोपकारी बनाने की प्रेरणा देते थे।
यथा-परोपकाराय फलान्ति वृक्षा:
परोपकाराय वहान्तिनद्यः
परोपकाराय दुहान्ति गावः
परोपकारार्थमिदं शरीर
प्रकृति में वृक्ष,नदियाँ,बादल,पर्वत सब परोपकार के लिए ही है यथा-
भवन्ति नम्रस्तरवः फलोद्रमै:
नवाम्बुभिर्दूर विलाम्बिनो घना।
अनुद्धता: सत्पुरुषा: समृद्धिभिः
स्वभाव एबैष परोपकारिणी ।
आधुनिक युग में मनुष्य ने पृथ्वी से पाताल तक, आकाश में विचरण करते नक्षत्रों पर अपना आधिपत्य स्थापित करने का प्रयास किया । विकास के नाम पर पर्वतों का सीना चीरना , वृक्षों की अंधाधुंध कटाई ,
समुद्र के नीचे तक ट्रेन;अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्रकृति का संतुलन बिगाड़ने का प्रयत्न करना मानव ने अपनी प्राथामिकत में शामिल कर लिया है। जिसके दुखद परिणाम प्राकृतिक आपदाओं के रूप में समय-समय पर दृष्टिगोचर होते रहे हैं।कभी कभी सुनामी, कभी चक्रवात ,कभी ज्वालामुखी,कभी बादल का फटना तो कभी भूकंप से धरती का फटना ,कभी बीमारी का महामारी के रूप में फैलना इत्यादि मानव को प्रकृति की खुली चेतावनी होती है कि हे मानव समझ जाओ अन्यथा विनाश के ऐसे मुहाने पर खड़े हो जाओगे जहां से वापसी के समस्तरास्ते बन्द हो जाऐंगे ।
उपभोक्तावाद की संस्कृति ने मानव को इतना अंधा कर दिया है कि वह सिर्फ धन दौलत और सुख सुविधाओं के पीछे दौड़ने लगा है। इसी में वह आनंद को ढूंढ रहा है। परंतु असली आनंद प्रकृति को निहारने तथा उसकी सुखद अनुभूतियों में है प्रकृति को खोजने में नहीं।आज फिर कोरोना वायरस के रूप में प्रकृति की चेतावनी मानव के लिए है।सम्पूर्ण देश विकसित हो अथवा विकासशील, तकनीकी से सम्पन्न हो अथवा चिकित्सीय सुविधाओं से परिपूर्ण, इस छोटे से वायरस के सामने सब बेबस और लाचार हो गए हैं।किसी को कुछ भी नहीं सूझ रहा है सिवाय उस सर्वशक्तिमान ईश्वर के जिसनें इस ब्रह्माण्ड कोरचा है।
अपने आप को सर्वज्ञ समझने वाला मानव आज की परिस्थिति में घुटनों पर आ गया है।यह प्रकृति की खुली चुनौती मानव के लिए है कि संभल जाओ प्रकृति के साथ खिलवाड़ करना छोड़ दो अन्यथा वह स्वयं अपनी रक्षा करने में समर्थ है। मानों कह रही हो--
. रे मानव , स्वयं हंता मत बन
प्रकृति की गोद में शिशु सदृश आ
स्वयं स्वामी बनने का प्रयत्न ना कर
मां समान तुझको प्रकृति दुलारती है
और तू भटक रहा इसके विनाश में।।
-अलका शर्मा
कन्या पूर्व मा०वि० भूरा
कैराना (शामली)