प्रशस्ति
कक्षा में आज एक अलग ही बहस छिड़ी हुई थी | आज अनिकेत एक समाचार-पत्र लेकर
आया था जिसमें छपी एक खबर बहस का विषय बनी गयी थी वो खबर थी एक शिक्षक को एक
प्रशस्ति-पत्र दिए जाने के सम्बन्ध में | बहस विकराल रूप ले चुकी थी | कक्षा में
दो गुट बन चुके थे और दोनों अपनी-अपनी बात पर अड़े हुए थे | दोनों पक्ष अपनी-अपनी
बात पर प्रोफेसर देव का समर्थन चाहते थे | लेकिन वो बस मुस्कुराये जा रहे थे | कोई
समाधान न निकलता देखा फिर अन्त में हमेशा की तरह गौतम को ही उठना पड़ा |
“सर, ये बहस तो अन्तहीन होती जा रही है | आप अपना मत रखिये और
बहस को समाप्त करवाइए | आपके सत्र का आज सारा समय इसी बहस ने खराब कर दिया |” –
गौतम ने अधीरता से कहा |
प्रोफेसर देव बोले- “मुझे तो बड़ा आनन्द आ रहा है आज की चर्चा-परिचर्चा
में |”
गौतम –“चर्चा-परिचर्चा नही सर, बहस ... बेकार की बहस |”
प्रोफेसर –“बेकार की बहस कहाँ ? काम की बहस कहो | बिना तर्क-वितर्क किये ही
हमें कोई अवधारणा नही बना लेनी चाहिए | वैसे भी आप सब लोग यहाँ से निकलकर शिक्षक
ही तो बनने जा रहे हो, इसलिए आवश्यक है कि अध्यापक समाज में होने वाली हर हलचल पर
तुम्हारी दृष्टि होनी ही चाहिए |”
गौतम –“लेकिन सर ! हमें क्या पता क्या सही है और क्या गलत ? तो किसी बात पर हमारा बहस करते रहना भी तो
उचित नही | आपका मत भी तो आवश्यक है |”
शिखा मुँह पिचकाकर बोली –“सर इतनी आसानी से अपना मत देते ही कहाँ है ?”
“सर तो अपने मत का साक्षात दर्शन कराते हैं |” – हर्ष से भी चुप न रहा
गया |
प्रोफेसर जोर से हँसे | सभी शिष्य उन्हें आश्चर्य से घूरे जा रहे थे |
“साक्षात् दर्शन मैं अपने मत का नही सत्य और वास्तविक तथ्यों का कराने का
प्रयास करता हूँ |” -प्रोफेसर बोले |
“तो गुरुदेव, आज के प्रकरण पर भी हमें सत्य के साक्षात दर्शन कराइये और हमारा मार्ग
प्रशस्त कीजिये |” – विवेक ने खड़े होकर नाटकीय अंदाज़ में कहा |
कुछ पल के लिए प्रोफेसर कुछ नही बोले तो गौतम ने सबको डाँटते हुए कहा –“अब
तुम लोग चुप भी करोगे या नही ? हम सब जानते हैं कि देव सर कभी किसी मुद्दे पर अपना
मतारोपण किसी पर नही करते |” फिर उसने कुछ बोलने के निवेदन के भाव से प्रोफेसर देव
की ओर देखा |
अब प्रोफेसर देव थोडा गम्भीर होकर बोले –“मैंने आप लोगों की बातें बहुत
ध्यान से सुनी है | ऐसा नही कि आप लोगों में केवल दो ही मत हैं | सभी एक दूसरे से
न तो पूरी तरह सहमत हैं और न ही पूरी तरह विरोध में | लेकिन मुख्यतः जो दो विचार
निकलकर आ रहे हैं उनमे से एक पक्ष कहता है कि जो शिक्षक विद्यालय समय में
विद्यालयी पाठ्यक्रमों से भिन्न बहुत सी गतिविधियों में सक्रिय रहते हैं वे
छात्रों और विद्यालयों के लिए बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं | इसके लिए
उन्हें विभिन्न सामाजिक संगठनों और स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी किया
जाता है | दूसरे शिक्षकों भी उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए और उन्ही की तरह प्रयास करना
चाहिए ताकि अधिक से अधिक सार्वजनिक मंचों पर प्रशस्ति प्राप्त करें और समाज में
शिक्षक के सम्मान को स्थापित कर सकें |”
“बिल्कुल सही कहा सर, हमारा यही मत है |” -आकाँक्षा ने खड़े होकर अपने पक्ष के मत की पुष्टि की
|
सिद्धि ने भी दृढ़ता से अपनी बात कही –“और हम लोग इस मत से सहमत नही हैं |”
प्रोफेसर ने बीच में टोकते हुए कहा –“ठीक है, मैं जानता हूँ तुम लोगों का मत भी | तो
चलिए एक काम करते हैं एक सर्वे प्रश्नावली बनाते हैं | कल जब हम सर्वे हेतु
जायेंगें तो आप लोग सावधानी और ईमानदारी से इस प्रश्नावली के आधार पर आँकड़ें एकत्र
करेंगें | अब आप लोग मुझे बताइए कि प्रश्नावली किस स्तर के शिक्षकों को ध्यान में
रखकर बनायी जाए ? प्राथमिक, माध्यमिक या फिर महाविद्यालयों को ?”
हर्ष बोला –“सर, महाविद्यालयों में शायद हम अधिक सुविधाजनक अनुभव नही करेंगें | और वैसे
भी अखबारों में सबसे ज्यादा ख़बरें प्राथमिक शिक्षकों की ही छपती हैं | माध्यमिक
विद्यालयों और महाविद्यालयों के शिक्षकों की ख़बरें तो कम ही आती हैं |”
प्रोफेसर देव बोले –“ तो ठीक है | हमारा ये सर्वे प्राथमिक विद्यालय के
शिक्षकों पर ही केन्द्रित होगा | लेकिन सभी एक बात का विशेष ध्यान रखेंगें कि जो
देखोगे वही दर्ज करोगे | अपनी राय या सलाह किसी को भी किसी विद्यालय में नही देनी
|” सभी ने सहमति दी |
* * *
अगले दिन सभी शिष्यों के साथ एक प्राथमिक विद्यालय में पहुँचे | प्रोफेसर
विद्यालय के कार्यालय में पहुँचे | मुख्य अध्यापक महोदय से अनुमति लेकर उन्होंने
कुछ शिष्यों को कक्षाओं में भेजा और स्वयं कार्यालय में ही बैठे | कार्यालय में
दीवारों पर बहुत से प्रशस्ति-पत्र सज्जित किये गये थे | कुछ स्मृति चिह्न भी रखे
हुए थे |
प्रोफेसर देव ने मुख्य अध्यापक महोदय से प्रश्न किया –“सर, ये सभी प्रशस्ति-पत्र आपने ही अर्जित किये
हैं ?”
मुख्य अध्यापक ने उत्तर दिया –“अरे नही सर, मेरा तो इनमे एक भी नही है | हमारे विद्यालय के एक शिक्षक
हैं | बहुत सक्रिय हैं | वो ही लगे रहते हैं | ये सब उन्हीं के हैं |”
प्रोफसर देव ने प्रशंशा के भाव से कहा –“बहुत अच्छी बात है | क्या आप
उनसे मिलवा सकते हैं ?”
मुख्य अध्यापक बोले –“वो कुछ देर पहले ही निकले हैं | स्वास्थ्य विभाग ने
एक कार्यक्रम रखा है | वो उसी में योगदान हेतु गए हैं | कई विभाग तो ऐसे हैं जो
प्रत्येक कार्यक्रम में हमारे इन शिक्षक को अवश्य बुलाते हैं | बहुत प्रतिष्ठा
अर्जित की है इन्होनें | और हमें देखिये कोई जानता ही नही |” कहते-कहते वो हँस पड़े
|”
प्रोफेसर देव भी मुस्कुराए | तब तक उनके शिष्यों ने आकर उन्हें चलने का
संकेत किया | फिर सबने मुख्य अध्यापक महोदय से विदा ली और अगले विद्यालय की राह
पकड़ी |
अगला विद्यालय बाहर से देखने में कुछ ज्यादा आकर्षक नही लग रहा था |
विद्यालय में तीन कमरे थे | दो कमरों में कोई नही था | तीसरे कमरे में एक शिक्षक
श्यामपट्ट पर बच्चों को कोई गणित का प्रश्न समझा रहे थे | प्रोफेसर को आया देखकर
भी वो प्रश्न हल करने में ही लगे रहे | प्रोफेसर ने भी कक्षा में जाना उचित नही
समझा | सभी कार्यालय में आकर बैठ गये | थोड़ी देर बाद वो शिक्षक कार्यालय में आये
और प्रतीक्षा कराने के लिए क्षमा माँगी |
प्रोफेसर देव ने कहा –“आपने उचित ही किया | नही तो चल रहे प्रश्न को फिर
शुरू से ही प्रारम्भ करना पड़ता और बच्चों को भी असुविधा होती |”
इसके बाद प्रोफसर ने अपना और अपने शिष्यों का परिचय उन्हें दिया |
शिक्षक महोदय ने अपने विद्यालय में आने के लिए उनका आभार प्रकट किया |
अब प्रोफसर अपने मुद्दे पर आ गये | कुछ शिष्यों को बच्चों से मिलने को
कहा | फिर शिक्षक महोदय पर सवाल दागने शुरू किये – “आप विद्यालय में अकेले शिक्षक
हैं ?”
शिक्षक महोदय बोले –“नही सर, हम लोग दो शिक्षक हैं | दूसरे साथी गाँव में गये हैं | कुछ
ऐसे बच्चे जो कई दिनों से स्कूल नही आ रहे | उन्ही को लाने और अभिभावकों से मिलने
गये हैं |”
प्रोफेसर कार्यालय की दीवारों को ध्यान से घूरे जा रहे थे |
शिक्षक महोदय बोले –“क्या देख रहें हैं सर ? हम लोग ज्यादा व्यवस्थित नही
रख पाते अपने कार्यालय को | तीन कक्षाएँ, बहुत सारा पाठ्यक्रम और ऊपर से बहुत सी
सूचनायें बनाकर भेजनी पड़ती हैं | हम दो ही तो लोग हैं |”
प्रोफेसर बोले –“अरे, नही नही | आपका कार्यालय अच्छा है | सुन्दर है |
मैं तो बस ये देख रहा था कि आपने अपने प्रशस्ति-पत्र दीवारों पर नही लगा रखे | घर
पर रखे हैं ?”
शिक्षक महोदय आश्चर्य से बोले –“कौन से प्रशस्ति-पत्र सर ?”
प्रोफेसर बोले –“अरे, आजकल तो बहुत सी सामाजिक संस्थायें और स्वयंसेवी
संगठन शिक्षकों को बहुत प्रोत्साहन दे रही हैं | प्रशस्ति-पत्र देककर सम्मानित कर
रहीं हैं | आप दोनों को भी तो मिले होंगें ?”
उन्होंने एक फीकी सी हँसी के साथ उत्तर दिया –“सर, हम किसी संस्था या संगठन के लिए कुछ नही
करते तो कोई हमे क्यों सम्मानित करे ? स्कूल के कागज़ी कामों से जितना भी समय बचता
है वो सारा पढ़ाने में ही लगा देते हैं फिर भी हमें तो इन बच्चों का पूरा पाठ्यक्रम
ही समाप्त करना मुश्किल हुआ रहता है | इनसे फुर्सत मिले तो कुछ सोचें भी | ऐसी बात
भी नही कि हमें अन्य विभागों और संस्थाओं से सम्मानित होना अच्छा नही लगता |
लेकिन... खैर छोडिये सर, मेरे लिए क्या आज्ञा है ? मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?”
प्रोफेसर ने अपने शिष्यों की ओर देखा | उनकी आँखों की चमक और चेहरे का
सन्तोष बात रहा था कि उन्हें अपनी जिज्ञासाओं के जवाब मिल चुके थे |
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सभी ने शिक्षक महोदय को धन्यवाद दिया और विदा ली |
सभी शिष्य एकत्र किये गये आँकड़ों से मोटा-मोटा सा प्रारम्भिक निष्कर्ष
निकाल चुके थे | प्रोफेसर भी अपने शिष्यों द्वारा निकाले गये निष्कर्ष को समझ चुके
थे | लेकिन वो जानते थे कि शिष्य अब भी उनके मत को जानने की प्रतीक्षा कर रहे थे |
वो गम्भीर होकर बोले –
“शिक्षक की सेवा अन्यों की सेवाओं से भिन्न होती है | जॉन डीवी महोदय ने
भी किसी विद्यालय के लिए बस तीन ही चीज़ों की महत्ता स्वीकार की है और वें हैं –
विद्यार्थी, शिक्षक
और पाठ्यक्रम | अगर कोई और दूसरी चीज़ भी महत्व रखती थो वो अपनी किसी न किसी पुस्तक
में उसका ज़िक्र अवश्य करते | कोई चीज़ शिक्षक के लिए महत्व की हो सकती है लेकिन
आवश्यक तो नही कि वो विद्यार्थियों के लिए भी महत्व की हो और जो चीज़ विद्यार्थियों
के लिए महत्व की नही वो भला किसी विद्यालय का क्या भला करेगी ? और विद्यालय का भला
नही तो समाज का भला नही |”
जो विचार प्रोफेसर देव ने अप्रत्यक्ष रूप में रखा था वो सभी शिष्य समझ
चुके थे |
* * *