बहुत दिनों बाद खेत पर पहुँचा था | सरकारी नौकरी में आने के बाद थोडा समय का भी अभाव सा हो गया था | सामने खेत में लहलहाती गेहूँ की हरी-भरी फसल…. मन झूमने लगा गेहूँ की बालियों के साथ… और सरसों के पीले-पीले फूल तो ऐसे लग रहे थे जैसे किसी नारी का आँचल फैला हो… मदहोश कर देने वाली महकती हवा…. तन-मन आनन्द से भर उठा | काफी देर तक में सुध-बुध भुलाये खडा रहा |
तभी अचानक तेज हवा का एक झोंका आया, और जीवन रूपी पुस्तक के पन्ने पलटने लगा.. कुछ पलों बाद पन्नों का फडफडाना बंद हुआ तो जीवन का एक अध्याय चलचित्र के समान आँखों के सामने था |
दिसम्बर की हड्डियाँ कपां देने वाली सर्दी … पिता खेत में सिचाईं कर रहे थे.. बर्फ जैसे पानी को अनुशासित करने के लिए उन्हें बार-बार संघर्ष करना पड रहा था | दूर खडा मैं, यद्यपि अभी बालक था फिर भी कुछ-कुछ अनुमान लगा रहा था कि उन्हें कितना कष्ट हो रहा होगा | लेकिन पिता को तो जैसे कुछ परवाह ही नही थी | बस किसी तरह सिचाईं पूरी हो जाए ताकि परिवार का पेट भरने लायक अनाज पैदा हो सके | इसी बीच बार-बार वो दृष्टि उठाकर तसल्ली कर लेते कि मैं अपने स्थान पर सुरक्षित खडा हूँ या नही | उस समय मैं सोच रहा था कि उन्हें मेरे अनुशासन की अधिक चिंता थी पानी के ?
हवा का झोंका एक बार फिर से हरकत में आया……..
कोई अन्य अध्याय………
पिता बार-बार फावड़े से पत्थर सी कठोर मिट्टी पर प्रहार किये जा रहे थे… उनके पसीने से खेत गीला हुआ जा रहा था… सूर्य देव तो जैसे आज उनकी सहनशीलता की परीक्षा ले रहे थे | धूप के रूप में आग बरस रही थी | दूर पेड की छाँव में बैठा मैं कभी तैयार खेत के क्षेत्रफल का आकलन करता तो कभी पिता के पसीने के आयतन का | जब ऊब गया तो छोटे-छोटे कदम रखते मैं पिता की ओर चल पड़ा | अभी कुछ ही दूर चला था कि तपती हुई धरती से पाँव जलने लगे… तेज धूंप से चेहरा झुलसने लगा था…. मैं चिल्ला उठा….. पिता दौड कर आये… मुझे गोद में उठा कर पैर जलने से बचाए | उनका कृष शरीर ढाल की तरह मुझे धूंप की आग से बचा रहा था |
फिर से तेज हवा का झोंका आया सारे पन्ने अस्त-व्यस्त कर गया |
वही धरती नीचे, वही आसमान ऊपर…. सामने वही खेत…….
लग रहा था फिर से उसी तरह दोपहर की गरमी में झुलस रहा हूँ..
मन चित्कार उठा- हे पिता कहाँ हो तुम?अपने स्नेह की छाया से क्यूँ वंचित कर गये ?
अभी और आपकी डाँट की मुझे और ज़रूरत है | मेरी उँगलियाँ अब पहले की तरह कोमल नही रही फिर भी आपकी बूढ़ी उंगली का अभाव महसूस करती हैं | दौड सकता हूँ लेकिन आपके कन्धों पर चढ़कर चलने का अभी भी मन करता है…. आपके दी हुई अठन्नियों से जो खुशी मिलती थी वो अब बड़े से बड़े नोट से नही मिल पाती |
क्यूँ चले गये परमपिता के पास हे पिता ?….आखिर इतनी ज़ल्दी क्यूँ ??
टप्प से पैर पर एक बूँद पडी तो अहसास हुआ कि आँखें बरस रही थी….
मैंने ज़ल्दी से आँखे पोंछी और घर कि तरफ चल पड़ा….
-जयकुमार