उपभोक्तावाद की संस्कृति

सृजन




इस दुनिया का हाल ये देखो कैसा हो गया?
मानव बनकर मानवहंता स्वार्थ सिद्धि में खो गया |
धन लोलुपताका दानव सिर पर चढकर बोल रहा ,
दोगला व्यक्तित्व लेकर इन्सा इस दुनिया में घूम रहा |
 छल प्रपंच से बातें करके सबको धोखा दे रहा ,
भ्रष्टाचार के समन्दर में मानव इतना डूब गया |
धन सम्पत्ति के चक्कर में सारे रिश्ते भूल गया,
 माता पिता भ्राता बन्धु सबसे रिश्ते तोड़ रहा |
उपभोक्तावाद की संस्कृति में भूल स्वयं को भी गया,
इन्टरनेट सेबनाकर नाता सच्चे दोस्त ढूंढ रहा |
संस्कारों को छोड़कर मानव अंधकार में डूब रहा,
प्रकृति काकरके दोहन सुख के साधन ढूंढ रहा |
 फिर आती नित नई आपदाओं से जूझ रहा,
मंगल चाँद की बातें करता, धरती से मुँह मोड रहा |
समझ बूझकर बढो तुम आगे, प्रकृति की ओर चलो,
नहीं समझे तो कल समझोगे तुमने क्या खो दिया |
                 
अलका शर्मा, क०उ०प्रा०वि०भूरा, कैराना, शामली
               

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