आज़ आचार्य ने शिक्षकों को कर्मनिष्ठ बनाने के लिए एक चिंतन शिविर का आयोजन किया है। शिविर शुरु होने से पहले शर्मा जी बोले- "आज़ बीमार मां की ख़बर पूछने के लिए मुझे मजबूरन वर्गखंड में मोबाइल का उपयोग करना पड़ा। लगता है आज़ बड़े साहब की डांट सुननी पड़ेगी।"
चावड़ा जी- "धीरे बोलो! यहां दीवारों के भी कान होते हैं। हो सकता है बड़े साहब का कोई भेदिया यहां पर बैठा हो! अब पढ़ाते समय पूरा ख्याल रखना, क्योंकि सभी वर्गखंडों में सीसीटीवी कैमरे लगा दिएं हैं।"
त्रिवेदी जी- "अधिकारी से एक क़दम आगे नहीं चलना चाहिए और गधे के एक क़दम पीछे।"
जाडेजा जी- "मज़ा तो है मौन रहने में। जो हो रहा है होने दो, जो चल रहा है चलने दो। बस चुपचाप देखते जाओ।"
राणा जी- "अधिकारी की जी-हजूरी करना सीख जाओ, जीवन में कोई मुश्किलें नहीं आएगी।"
रावल जी- "साहब, इसके लिए ईमान को बेच देना पड़ता है।"
पवन कुमार- "नौकरी को छोड़ सकता हूं, लेकिन अपने ईमान को नहीं बेच सकता।"
इतने में आचार्य आ गये और आते ही कर्त्तव्यनिष्ठ पवन कुमार को झपट में ले लिया- "आज़ आप पहला पीरियड शुरू होने के पांच मिनट बाद वर्गखंड में गएं हैं। यदि आपको मेरी बात पर विश्वास न हो तो सीसीटीवी कैमरे में देख लीजिए।"
पवन कुमार को अपने अस्तित्व पर जैसे कुठाराघात लगा और बेधड़क होकर बोले- "साहब जी, कैमरे लगाकर अपने कर्मचारियों पर नज़र रखते हो और अपनी गुप्तचर एजेंसी के द्वारा उनकी सूक्ष्मातिसूक्ष्म जानकारी प्राप्त करते हो, लेकिन क्या कभी आईने के सामने खड़े
चिंतन शिविर में बैठे हुएं सभी शिक्षकगण एक दूसरे को देखने लगे और मन ही मन पवन कुमार की वाहवाही करने लगे। आचार्य मुंह से एक शब्द भी नहीं बोल पाए और आत्म-चिंतन करने के लिए विवश हो गए।
समीर उपाध्याय 'ललित'
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गुजरात