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सृजन समूह शामली, उत्तर प्रदेश

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रविवार, 5 जून 2022

मुसीबतें भी मुझ से घबराईं

 जो देखे थे सपने मैंने, वह सपने सारे अधूरे ही रह गए,

जो लिखना चाहा जीवन में, वह पन्ने सारे कोरे रह गए,

 

कुछ पन्ने गर लिखे मैंने, दूसरों के द्वारा सारे फाड़े गए,

फाड़-फाड़ कर वह सारे पन्ने, मेरे समक्ष ही जलाए गए,

 

नहीं चाहती जीवन की किताब, पूरी ही कोरी रह जाए,

लिखूं मैं हर पन्ना वैसा, जैसा कि मेरे मन को भा जाए,

 

जीतूंगी हर बाजी जीवन की, हार कभी भी ना मानूंगी,

अपनी ख़्वाहिशें पूरी करने की, हर तरकीब निकालूंगी,

 

जो खो गया था कहीं अंदर, फिर मैंने उसे तलाश लिया,

कोशिश कर मैंने उसे, हिम्मत से पूरा फिर संवार लिया,

 

नहीं डरती मैं अब किसी से, हर ख़्वाहिश पूरी करती हूँ,

किताब का हर पन्ना, ख़्वाहिशों के अनुरूप ही लिखती हूँ,

 

कोशिश भी करे गर कोई, उस पन्ने को अब छूने तक की,

हाथ पन्ने तक पहुँच ना पाए, इतनी शक्ति अंदर रखती हूँ,

 

देना चाहती हूँ पैगाम मेरा, हर एक उस अबला नारी को,

जो कूप मंडूक बन रहती हैं और जीवन पर्यंत ही रोती हैं,

 

लिखो एक किताब ऐसी, तुम ख़ुद ही ख़ुद पर नाज़ करो,

और अपनी किताब के हर पन्ने पर पूरा आत्म विश्वास भरो,

 

पढ़े जो भी किताब तुम्हारी, वह सोचने पर मजबूर हो जाए,

स्वावलंबन व आत्म विश्वास का पाठ सीखने उसे मिल जाए,

 

मैं भी तो पहले डरी हुई, सकुचाई-सी एक अबला नारी थी,

घुंघट और मुसीबतों से घिरी हुई, मैं केवल एक बेचारी थी,

 

किंतु फिर अपने जीवन में, परिवर्तन मैं ऐसा लेकर आई,

सुलझ गई उलझी गुत्थी, मुसीबतें भी फिर मुझसे घबराईं।

 

-रत्ना पाण्डेय ,

वडोदरा, गुजरात

 

 

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