चल पड़ी आज की स्त्री,जब परिश्रम के पथ पर
दोहरी जिम्मेदारियों से भी,यह कभी थकती नहीं
संग लेकर भविष्य राष्ट्र का,यह राह में रुकती नहीं
श्रान्त तन नहीं क्लांत मन,आशा की डोर बांधकर
उगते सूरज की अरुणिमा सी,कर्तव्य पथ पर बढ़ी
पोटली में रोटियां उंगली,पकड़कर बच्चे की चली
खुले व्योम के नीचे स्वेद बहाने,ज्यादा लालच नहीं
दो जून रोटी की चाहत,अट्टालिका नहीं ललचाती
ज्येष्ठ दुपहरी तपती धूप में,पत्थर तोड़कर घरआती
मन में नहीं बसी कोई,चांद तारें पाने की अभिलाषा
खुले गगन के नीचे वास,जीवन जीने की जिजीविषा
मुख पर मुस्कान की चादर,सर पर टोकरी आशा की
विटप डालियां देती हिम्मत,झंझावातों से लडने की
दुनिया के आंगन में यह,सूरज सा हर दिन तपती है
थककर चूर हो जाती,नहीं कर्तव्य पथ से डिगती है
अलका शर्मा,
शामली, उत्तर प्रदेश