वैदिककालीन शिक्षा व्यवस्था में शिक्षण संस्थान एवं छात्र
वैदिक कालीन शिक्षा की जानकारी ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद के साथ उपनिषदों एवं वेदांगों से होती है। ‘वेद’ शब्द की उत्पत्ति ‘विद्’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है ज्ञान प्राप्त करना। अतः वेद शब्द का शाब्दिक अभिप्राय है, जिससे ज्ञान प्राप्त किया जाता है। वेद शब्द का व्युत्पत्यात्मक अर्थ है- ‘‘समस्त ज्ञान का स्रोत तथा असीमित कोष’’ जो दर्शाता है कि वेदों में सांसारिक, व्यावहारिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्रों में मानव के लिए आवश्यक समस्त ज्ञान संग्रहीत है। ऐसा ज्ञान जो मानवता की सर्वतोन्मुखी प्रगति करने तथा सभी दिशाओं में सफलता प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। वेद वास्तव में इष्ट अर्थात् वांछित की प्राप्ति तथा अनिष्ट अर्थात् अवांछित को दूर करने के अलौकिक उपायों को व्यक्त करते हैं।
वेदों को भारतीय जीवन दर्शन का स्रोत माना जाता है। ऋग्वेद को आदि वेद माना जाता है। इसे न केवल हिन्दुओं का बल्कि समस्त भारतीय यूरोपियन भाषाओं का तथा मानवता का प्रथम साहित्य होने का गौरव प्राप्त है। ऋग्वेद में विभिन्न ऋषि परिवारों द्वारा रचित स्रोत का संकलन है। इसमें प्राचीन हिन्दुओं के सामाजिक व सांस्कृतिक जीवन व सभ्यता के विभिन्न पक्षों का सजीव चित्रण है। सामवेद गायन पुस्तिका है जबकि यजुर्वेद को एक प्रार्थना पुस्तक कहा जा सकता है। इसमें मंत्रों, प्रार्थनाओं तथा यज्ञों की संस्कार विधियों का सजीव वर्णन है। यजुर्वेद ने अन्य विषयों के विकास में काफी सहयोग दिया। यज्ञ के लिए भूमि को नापने व यज्ञ वेदी बनाने के कार्य में ज्यामिति की, यज्ञ के लिए उपयुक्त मौसम का अनुमान लगाने के कार्य ने खगोल की आधारशिला रखी। जबकि अथर्ववेद का एक बड़ा भाग विभिन्न रोगों के उपचार हेतु जड़ी बूटियों का वर्णन करता है। इसके अतिरिक्त अथर्ववेद में नक्षत्र विज्ञान, गृह विज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र के सम्बन्ध में कुछ स्रोत दिये गये हैं।
वैदिककालीन शिक्षा का उद्देश्य
वैदिक काल में जीवन दो प्रकारों में विभक्त था। जैसे -(1) परा विद्या (2) अपरा विद्या। ‘परा विद्या’ का अर्थ ‘ज्ञान’, ‘कर्म’, तथा उपासना के द्वारा ‘मोक्ष’ की प्राप्ति करना था, जबकि ‘अपरा विद्या’ का अर्थ संगठित तथा नियोजित सामाजिक व्यवस्था का संचालन करना था। अतः स्पष्ट है कि ‘परा विद्या’ के लिए अलौकिक विद्याओं का ज्ञान होना आवश्यक था तथा ‘अपरा विद्या’ के लिए सामाजिक विद्याओं का ज्ञान होना आवश्यक था। वैदिक कालीन शिक्षा में ‘परा विद्या’ को अधिक श्रेष्ठ माना जाता था। संभवतः इन्हीं कारणों से वैदिक काल में शिक्षा का एकमात्र लक्ष्य छात्रों की शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों का विकास इस तरह से करना था, जिससे मोक्ष प्राप्ति के सर्वोच्च लक्ष्य की प्राप्ति की जा सके। सादा जीवन तथा उच्च विचार के महाकाव्य से निर्दिष्ट होने वाली शिक्षा में छात्रों के सर्वांगीण विकास पर बल दिया जाता है। उस समय शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य निम्नवत थे -
(1) नैतिक चरित्र का निर्माण करना (2) पवित्रता तथा धार्मिकता का विकास करना (3) व्यक्तित्व का
उपनयन संस्कार
वैदिक काल में बालक के विद्याध्ययन का औपचारिक प्रारम्भ एक संस्कार के द्वारा होता था जिसे उपनयन संस्कार कहते हैं। उपनयन का अर्थ है - पास ले जाना। यही नहीं बल्कि उसके बौद्धिक उत्कर्ष का प्रारम्भ इसी संस्कार से होता है। वास्तव में उपनयन संस्कार के उपरान्त ही बालक ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करता था। उपनयन को बालक का दूसरा जन्म माना जाता है। मनुस्मृति में विहित है कि उपनयन इहलौकिक तथा पारलौकिक दोनों जीवन को पवित्र बनाता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य विद्यार्थी के लिए क्रमशः आठ, ग्यारह तथा बारह वर्ष की आयु का निर्धारण किया गया है। ब्राह्मण का संस्कार बसन्त ऋतु में, क्षत्रिय का ग्रीष्म में तथा वैश्य का पतझड़ ऋतु में किए जाने का विधान है।
शिक्षण संस्थाएं
बालकों की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही प्रारम्भ हो जाती थी। इस गृह आधारित शिक्षा का उद्देश्य गुरूकुलों में उपनयन के बाद प्रदान की जाने वाली औपचारिक शिक्षा के लिए बालकों को तैयार करना होता था। शब्दों का उच्चारण, शब्द ज्ञान, भाषा, व्याकरण तथा गणित की प्रारम्भिक बातें घर पर बालकों को सिखाई जाती थी। इस प्रकार से घर ही बालक की प्रथम परन्तु अनौपचारिक शिक्षा संस्थान होती थी। विद्यार्थियों को उपनयन के उपरान्त गुरूकुल में ही रहना होता था, तथा गुरूकुल के नियमों का पालन करना होता था। गुरू पत्नी, माता की तरह से आश्रमवासी शिष्यों की देखभाल करती थी। गुरूकुल का जीवन अत्यन्त सरल तथा सहज होता था। उस समय मिथिला, काशी, कांची, कैकय, उज्जैन, प्रयाग, तन्जौर आदि अनेक स्थान शिक्षा के लिए प्रसिद्ध थे।
छात्रगण
गुरूकुल में प्रवेश केवल सदाचार तथा योग्यता के आधार पर होता था। छात्र सामान्यतः गुरूकुल में बारह वर्ष तक अध्ययन करते थे। एक वेद का अध्ययन करने वाले छात्र को ‘स्नातक’, दो वेदों का अध्ययन करने वाले को ‘वसु’ तथा तीन वेदों का अध्ययन करने वाले को ‘रूद्र’ एवं चारों वेदों का अध्ययन करने वाले छात्र को ‘आदित्य’ कहते थे।
वैदिककालीन शिक्षा व्यवस्था में पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधि
वैदिक काल में पाठ्य-विषयों को एकांग तथा समन्वित रूप में पढाने की पद्धति प्रचलित थी। पराविद्या का उद्देश्य बालक का आध्यात्मिक विकास करना था। धर्म, दर्शन, वेद, वेदांग, नीतिशास्त्र, जीव, आत्मा और परमात्मा जैसे नियमों का छात्र अध्ययन करते थे। जबकि अपरा विद्या के अन्तर्गत इतिहास, ज्योतिष, गणित, जीव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, भूगर्भ विद्या, भौतिक शास्त्र, कृषि, चिकित्सा आदि विषय पढने के लिए तर्कशास्त्र को विशेष महत्व प्राप्त था।
वैदिककालीन शिक्षण विधि
सामान्यतः वैदिक काल में उपदेश विधि, अनुकरण विधि, कण्ठस्थ विधि, व्याख्या एवं दृष्टान्त विधि, प्रश्नोत्तर विधि, श्रवण, मनन और निदिध्यासन विधि, क्रिया विधि और अभ्यास विधि का उल्लेख मिलता है। वेद कालीन शिक्षा में छात्रों को ज्ञान प्रत्यक्ष रूप से प्रदान किया जाता था। यहाँ पर शिक्षक का प्रमुख स्थान था। शिक्षा संस्कृत भाषा के द्वारा प्रदान की जाती थी। शिक्षण हेतु प्रश्नोत्तर विधि, कथा विधि, व्याख्यान विधि, वाद-
परीक्षा प्रणाली
वैदिक काल में किसी औपचारिक परीक्षा प्रणाली का शिक्षा व्यवस्था में कोई स्थान नहीं था। अध्यापक प्रत्येक दिन छात्रों के ज्ञान का परीक्षण करके ही आगे का पाठ पढाता था। अध्यापक छात्रों की कमियों तथा त्रुटियों को इंगित करता था तथा छात्र अपनी इन कमियों को दूर करता था। अध्यापक जब तक सन्तुष्ट नहीं हो जाता था, आगे का पाठ प्रारम्भ नहीं करता था।
वैदिककालीन शिक्षा व्यवस्था में गुरु शिष्य सम्बन्ध एवं समावर्तन उपदेश
वैदिक काल में गुरू और शिष्य के बीच अत्यन्त मधुर तथा आध्यात्मिक सम्बन्ध होते थे। गुरू अपने अनुपम व्यक्तित्व, उदात्त विचारों, गहन ज्ञान, सहज अवबोध तथा उच्च स्तरीय शिक्षण से छात्रों को प्रभावित करता था। ऋषि कश्यप, वशिष्ठ, विश्वामित्र, अगस्त्य, बृहस्पति, शुक्राचार्य, भारद्वाज, अत्रि, कण्व, वामदेव, भृगु, याज्ञवल्क्य, गार्गी, मैत्रेयी आदि प्रमुख विचारक (दार्शनिक) एवं शिक्षक थे।
नारी शिक्षा
वैदिक कालीन समाज में विवाह को एक पवित्र बन्धन के रूप में माना गया है और शतपथ ब्राह्मण में पत्नी को पति का अर्द्धांगिनी कहा गया है। वैदिक काल में नारी शिक्षा को पर्याप्त महत्व प्रदान किया गया था। वैदिक कालीन विदुषी महिलाओं में लोपामुद्रा, घोषा, अपाला, विश्ववारा, इन्द्राणी, मैत्रेयी, कात्यायनी, गार्गी का नाम मिलता है। वैदिक काल की इन विदुषी महिलाओं ने नारी शिक्षा का अनुकरणीय स्वरूप प्रस्तुत किया।
डॉ0 दिनेश कुमार गुप्ता
प्रवक्ता,
अग्रवाल महिला शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय,
गंगापुर सिटी, जिला-सवाई माधोपुर
राजस्थान - 322201