कहाँ जानते थे
आज हाशिये पर होंगे
कल,
कहाँ जानते थे??
पाला-पोसा,
जिनको सींचा
खून से था
वही आज,
नाशुकरी का,
प्रमाण होंगे।
रातों को जिनके लिए
सोये नहीं थे जो
आज,
उनकी बदतमीजियों का,
वो शिकार होंगे।
पता था कब कहाँ माँ को
वो उधड़न,
जिसकी सीलती है
वही औलाद,
चिथड़े तक
उसके छीन लेती है।
जागती खुद
रातों को,जो
लोरी उसको सुनाती थी
सुबह उसके लिए जो भागकर
वापिस जुट जाती थी।
वही औलाद छलनी आज
सीना उसका कर देगी
शब्दों के कटु खंजर से
उसको छलनी कर देगी।
पिता खपता रहा
जिसके
कुशल-मंगल के लिए,
जीवनभर,
वही औलाद,
उनको आज
घर से बाहर का रस्ता,
दिखा देगी।
आज देखा था
एक मंज़र,
जो अंदर से हिलाता है
मारकर माता-पिता को वो
तीरथ स्थान जाता है।
पुण्य आत्माओं को,दुःख देकर
वो पुण्य कमाता है
खबर उसको नहीं शायद
जन्नत इन्हीं से है
जो पूरी होगी,उसकी,वो
मन्नत उन्हीं से है।
बड़प्पन उनका देखो,तुम
फिर भी, उन्हें
आशीष देते हैं
जो बच्चे,
पल-पल उनका
तिरस्कार करते हैं।
डॉ० दीपा
असिस्टेंट प्रोफेसर
दिल्ली विश्वविद्यालय