होली पर गुझिया दूँगा

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 कहाँ  रहे  सूरज दादा तुम,


दीखते   इतनें   जवाँ-जवाँ।

क्या-क्या  खाकर आये हो,

चमक  रहे  तुम  रवाँ-रवाँ ?

 

आँख मिचौली बहुत हो गई,

पता  बता  दो   अब  दादा।

मुझको भी थोड़ी सी चहिये,

धूप   और   हवा    ताजा।।

 

इतनें दिन तक छिपे रहे हम,

बिस्तर  और   रजाई     में।

तेरे   आते   ही   सब  देखो,

चहक   रहे   अमराई   में।।

 

कलियाँ खिली बाग में भौरे,

तितली  के संग बच्चे दौड़े।

कोयल कूँ कूँ  गीत  सुनाए,

माँ नें जमकर तले पकौड़े।।

 

मेरे घर  की  सोन  परी वो,

रूठी   बैठी      रहती   है।

दादा के  संग  सैर -सपाटे,

करनें  को   वह कहती है।।

 

आये हो तो अब मत जाना,

देखो  अब    मैं   रो   दूँगा।

इसी"विजय"पर तुमको दादा,

होली  पर  गुझिया   दूँगा।।

 

 

                        विजय लक्ष्मी पाण्डेय

                        आजमगढ़,उत्तर प्रदेश

 

 

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