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सृजन समूह शामली, उत्तर प्रदेश

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बुधवार, 15 दिसंबर 2021

आजादी का अमृत महोत्सव

       हमारा देश भारत एक लम्बे समय तक अंग्रेजों के अधीन रहा। काफी संघर्ष और बलिदान के बाद देश को स्वतंत्रता मिली। लेकिन देश स्वतंत्र होने से पहले ही दो भागों में बंट गया।  स्वतंत्रता की खुशियां वेदना में बंट गयीं।  दोनों देशों से विस्थापन के दर्द को देखकर स्वर्ग में शहीदों की आत्मा रो रही थी और धरती पर विस्थापन झेल रही जनता की आत्मा।

देश के विभाजन को लगभग दो महीने भी पूरा नहीं हो पाये थे,  भड़की हिंसा की आग बुझ भी नहीं पायी थी कि कश्मीर को हथियाने का मंसूबा पाले पाकिस्तान के हुक्मरान और सेना ने अक्टूबर 1947 में अपनी नियमित सेना द्वारा प्रशिक्षित   कबायलियों को हथियार देकर कश्मीर पर हमला करने के लिए भेज दिया गया ।  उस समय तक वहां के राजा हरि सिंह विलय के बारे में निर्णय नहीं कर सके थे। इस आक्रमण से निपटने में स्वयं को असमर्थ पाकर उन्होंने तत्काल भारत में विलय करने की घोषणा कर दी।विलय होते ही जम्मू-कश्मीर की सुरक्षा की जिम्मेदारी भारत पर आ गयी। भारतीय सेना के दस्ते डकोटा विमान से श्रीनगर भेजें गये।  इसी कबायली हमले के दौरान 03 नवंबर 1947 को कश्मीर घाटी के बडगाम में एक लड़ाई हुई थी जिसे बडगाम की लड़ाई के नाम से जाना जाता है। इस युद्ध में भारतीय सैनिकों की संख्या सिर्फ 50 के आस पास थी जबकि कबायली हमलावर  500 से ज्यादा संख्या में थे। इस युद्ध को समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे मुड़कर इसकी पृष्ठभूमि समझनी होगी।

कबायलियों का दल तीन टुकड़ियों में बंटकर आगे की ओर बढ़ रहा था। पहली टुकड़ी वुलर झील की ओर, दूसरी मुख्य मुजफ्फराबाद- बारामूला- पाटन और श्रीनगर जबकि तीसरी टुकड़ी गुलमार्ग के रास्ते पर थी। पता चला था कि 700 कबायलियों का दल गुलमार्ग के रास्ते पर जा रहा है और वह बडगाम पहुंचने वाले थे।

161 इन्फैंट्री ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडियर एल पी सेन ने नया नया कार्यभार संभाला था। उन्होंने फैसला किया कि एक गश्ती दल को बडगाम गाँव  की निगरानी के लिए भेजा जाए। गश्ती दल का काम बडगाम के आसपास और बडगाम एवं मगाम के बीच के इलाके की तलाशी लेना था ताकि घुसपैठिए कबायलियों का पता लगाया जा सके। गश्ती दल में दो कंपनी को तैनात करने का फैसला लिया गया। कुमाऊं रेजिमेंट की पहली बटालियन (1 कुमाऊं) को कुमाऊं रेजिमेंट की चौथी बटालियन (4 कुमाऊं) के साथ गश्त ड्यूटी सौंपी गई। 1 कुमाऊं रेजिमेंट को बडगाम के आगे के इलाके की गश्त का काम सौंपा गया था।

3 नवंबर 1947 को मेजर सोमनाथ शर्मा के नेतृत्व में 4 कुमाऊं कंपनी गश्त कर रही थी।  कबायलियों ने मेजर सोमनाथ शर्मा और उनकी कंपनी को चारों तरफ से घेर लिया। मेजर शर्मा और उनकी कंपनी ने इसमौके पर बहादुरी का परिचय दिया और कबायलियों का डटकर मुकाबला किया। अगर इस मौके पर मेजर शर्मा की कंपनी थोड़ा भी चूक जाती तो युद्ध का नतीजा पलट जाता। मेजर शर्मा ने फैसला किया कि अपनी कंपनी के आखिरी जवान के रहने तक मुकाबला जारी रखेंगे। उनकी बहादुरी और जांबाजी ब्रिगेड मुख्यालय को भेजे गए उनके आखिरी संदेश से पता चलती है। उनके पास एक गोला आकर फटा था जिसमें वह बुरी तरह घायल हो गए थे। अपनी शहादत से कुछ क्षण पहले उन्होंने ब्रिगेड मुख्यालय को एक संदेश भेजा था, जो इस प्रकार था - 'दुश्मन हमसे सिर्फ 50 गज की दूरी पर है।  दुश्मन हमसे कई गुना संख्या में हैं लेकिन मैं एक ईंच पीछे नहीं हटूंगा। आखिरी जवान और आखिरी राउंड तक लड़ूंगा।' युद्ध के बाद मेजर सोमनाथ शर्मा के इस जज्बे को मरणोपरान्त "परम वीर चक्र" देकर सम्मानित किया गया।

यह महज  संयोग की बात है कि परमवीर चक्र की डिजाइन को श्रीमती सावित्री बाई खानोलकर ने तैयार किया था और उसे पहली बार उनकी बेटी के देवर मेजर सोमनाथ शर्मा को आज के ही दिन शौर्य और पराक्रम के लिए दिया गया।*

आजादी के अमृत महोत्सव में मेजर सोमनाथ शर्मा और कुमाऊं रेजीमेंट के वीरों के बलिदान को याद करना उन महान वीर आत्माओं को सच्ची श्रद्धांजलि होगी जिन्होंने  देशहित को सर्वोपरि रखा और आखिरी गोली रहने तक लड़ते रहे।

-हरी राम यादव

सूबेदार मेजर (से०नि०)

लखनऊ (उ०प्र०)

 

 

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