गरमी, जाडा भी
काफी भरपूर
पर खेतों में
थककर चूर
पसीना से वदन पर
झलकता नूर
मेहनत, परिश्रम की
बूँदें छोटी-छोटी
गाँठ से खोलता
सूखी रोटी
संघर्ष पूर्ण है
उसका रास्ता
बासी खाना ही है
उसका नास्ता
इस भोजन को
मेहनत से बनाया है
अपनी मजूरी से
चुल्हा जलाया है
कभी चोरी नहीं की
मेहनत ही मंसूबा है
भले महाजनों के
कर्जा में डूबा है
कभी सोचता है
कौन-सी जिंदगी पाया है
पर हर दिन चौक-चौराहे
पहले की तरह आया है
ऐसे ही कमाया है
तब जाकर खाया है
मुफ्त में खाना
जीवन में रास नहीं है
समझदार हैं बहुत
जबकि मैट्रिक पास नहीं है
इसी ने संसार को
खूबसूरत बनाया है
इसके बदले सिर्फ
मंदिर-मस्जिद-गिरिजा
खूब बनाया है
अपने मेहनत से
सबको चमकाया है
भले धूल जमा हो
मजदूर के तन में
पर मैल नहीं है
उसके मन में
क्या हिंदू, मुस्लिम
सबके घर करता है काम
क्या कभी मालिक का
पूछता है नाम
भेदभाव नहीं रखते हैं
अपने निश्छल मन में
फिर तो आदर होनी चाहिए
भारत के जन-जन में ।।
-
नेतलाल प्रसाद यादव
गिरिडीह, झारखण्ड