एक शिक्षक ही है जो यह बताता है की रेगिस्तान में फंस जाने पर नागफनी के पेड़ को काटकर पानी पिया जा सकता है। वरना काफी लोगों में भ्रम है कि मरे ऊंट के कूबड़ में से भी पानी पिया जा सकता है। जिंदगी में मनुष्य को अक्सर भ्रम होता है जब उसे यह नहीं समझ आता कि जो हो रहा है या जो दिखाई दे रहा है वह सच है या भ्रम। ठीक मृग मरीचिका की तरह। जहाँ मृग मरीचिका में पास जाने पर वास्तविकता का पता चल जाता है असल जीवन में हमे शिक्षक की जरूरत होती है जो बता सके की क्या सच है और क्या झूठ। एक गंदे साबुन को दुसरे साबुन से नहीं धोया जा सकता। यह भी हो सकता है कि साफ़ सुधरा साबुन भी गन्दा हो जाये। लेकिन उसका इस्तेमाल बंद करके हम गंदगी से बच सकते है। यूँ मान लीजिये गंदे और साफ़ साबुन के बीच का फ़र्क़ हमें एक शिक्षक ही बता सकता है।
जरा सोचकर देखिये शिक्षक का मनोदशा !! एक शिक्षक जीवनभर बच्चों को पढ़ाता है। बच्चें जब बड़े हो जाते हैं तो पढ़ाई के बाद अपने जीवन में लग जाते हैं और नए बच्चे शिक्षक के पास आ जाते हैन और इस तरह यह क्रम चलता रहता है। मतलब एक शिक्षक जीवनभर लगभग समान उम्र के बच्चों को पढ़ाता है। फलत: शिक्षक और उसके विद्यार्थी के बीच के उम्र का अंतर हमेशा बढ़ता ही रहता है। क्यूंकि शिक्षक की उम्र तो निरंतर बढ़ती ही रहेगी। लेकिन फिर भी शिक्षक उम्र के फासले को दरकिनार कर विद्यार्थी को शिक्षा देने में सफल हो ही जाता है।
अच्छे शिक्षक बनना हर किसी के हाथ में नहीं लेकिन अच्छे शिष्य या विद्यार्थी तो बन सकते हैं। कम से कम कोशिश तो कर ही सकते हैं। यूँ तो संजय स्वाभाव से विन्रम और थे, महर्षि व्यास के शिष्य भी थे लेकिन उनकी भूमिका सिर्फ युद्ध का हांल बताने तक सीमित रही। गौर करने वाली बात यह है कि अर्जुन के अलावा सिर्फ संजय ने सिर्फ कृष्ण का विराट स्वरुप देखा था। गीता का उपदेश उन्होंने भी सुना और उसको अपने जीवन में अपनाया। आइयें प्रण लें कि अच्छे श्रोता और अच्छे विधार्थी बनकर अच्छे विचारों को अपनाएं और जीवन में मिलने वाले तमाम शिक्षकों का सम्मान करें।
-प्रफुल्ल सक्सैना
जयपुर, राजस्थान